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भगवई
श. ८ : उ. ७ : सू. २९२,२९३ २९२. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अन्य- अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु यूथिकान् एवमवादिषुः-नो खलु आर्य! अज्जो! अम्हं गम्ममाणे अगते, अस्माकं गम्यमानः अगतः, वीतिक्कमिज्जमाणे अवीतिक्कते, व्यतिक्रम्यमाणः अव्यतिक्रान्तः, राजगृहं रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते। नगरं सम्प्राप्तुकामः असम्प्राप्तः। अस्माकम् अम्हण्णं अज्जो! गम्ममाणे गए, आर्य! गम्यमानः गतः, व्यतिक्रम्यमाणः वीतिक्कमिज्जमाणे वीतिक्कते, व्यतिक्रान्तः, राजगृहं नगरं सम्प्राप्सुकामः रायगिह नगरं संपावि-उकामे संपत्ते। सम्प्राप्तः। युष्माकम् आत्मना चैव गम्यमानः तुब्भण्णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगते, अगतः, व्यति-क्रम्यमाणः अव्यतिक्रान्तः, वीति-क्कमिज्जमाणे अवीतिक्कते, राजगृहं नगरं सम्प्राप्लुकामः असम्प्राप्तः। रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः अन्ययूथिकान् तए ण ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं एवं प्रतिभणन्ति. प्रतिभण्य गतिप्रवादं नाम पडिभणंति, पडिभणित्ता गइप्पवायं नाम अध्ययनम् ज्ञापयन्। अज्झयणं पण्णवइंसु॥
२९२. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! हमारे मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त नहीं होता। आर्यो! हमारे मत के अनुसार गम्यमान गत, व्यतिक्रम्यमान व्यतिक्रान्त, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला संप्राप्त होता है। तुम्हारे अपने मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त होता है। भगवान स्थविरों ने अन्ययूथिकों की इस प्रकार प्रत्युत्तर दिया, प्रत्युत्तर देकर 'गतिप्रवाद' नाम के अध्ययन का प्रज्ञापन किया।
२९३. कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए कतिविधः भदन्त ! गतिप्रवादः प्रज्ञप्तः ? । पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तं गौतम! पंचविधः गतिप्रवादः प्रज्ञप्तः, जहा-पयोगगई, ततगई, बंधण- तद्यथा-प्रयोगगतिः, ततगतिः, बंधनछेयणगई, उववायगई, विहायगई। एत्तो च्छेदनगतिः, उपपातगतिः, विहायोगतिः। आरब्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं __इतः आरभ्य प्रयोगपदं निरवशेष भणितव्यं जाव सेत्तं विहायगई।
यावत् सा तत् विहायोगतिः।
२९३. भंते! गतिप्रवाद कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम ! गतिप्रवाद पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-प्रयोगगति, ततगति, बंधच्छेदनगति, उपपातगति, विहायगति, इस गति सूत्र से प्रारंभ कर विहायगति के व्याख्या सूत्र तक प्रज्ञापना (सोलह) का प्रयोग पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है।
भाष्य
१.सूत्र २८५-२९३
२. तत गति–एक गांव के लिए प्रस्थान किया, वहां पहुंचा नहीं, अन्ययूथिकों ने गति के आधार पर हिंसा का आक्षेप प्रस्तुत ___अंतराल पथ में वर्तमान व्यक्ति की गति। किया। उन्होंने कहा-'तुम चलते समय पृथ्वी का उपघात करते हो ३. बंध छेदन गति-जीव का शरीर से मुक्त होना अथवा शरीर इसलिए तुम हिंसा से बच नहीं सकते। स्थविरों ने इसके प्रतिवाद में का जीव से मुक्त होना। कहा-हम पृथ्वी के एक देश-जीव रहित भूखंड पर चलते हैं। हम पृथ्वी ४. उपपात गति-एक भव से मरकर दूसरे भव अथवा क्षेत्र में के एक प्रदेश-जीव रहित भूखंड पर चलते हैं इसलिए हम हिंसा से उपपात के लिए होने वाली गति। बच जाते हैं।
५. विहाय गति-इसके स्पृशद्गति आदि सतरह प्रकार हैं।' तुम सजीव देश अथवा निर्जीव देश का विवेक नहीं करते इसलिए विस्तार के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद १६/१७-५५। तुम्ही पृथ्वी का उपघात करते हो। इस प्रसंग में गम्यमान गत के भगवई शतक ७/१० का भाष्य। सिद्धांत का प्रतिपादन कर स्थविरों ने 'गतिप्रवाद' नामक अध्ययन शब्द विमर्श का प्रज्ञापन किया।
पेच्चेह-आक्रमण कर रहे हो। गति-प्रवाद के पांच प्रकार हैं
अभिहणइ-पैरों से आहत कर रहे हो। १. प्रयोग गति-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति।
वत्तेह-पैरों से चूर्ण कर रहे हो।
१. भ. वृ. ८/२८८-देसं देसेणं वयामो ति प्रभूतायाः पृथिव्या ये विवक्षिताः देशास्तेर्वजामा नाविशेषण ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतनदेशपरिहार- तोऽचननदेशैर्वजामः इत्यर्थः एवं पएसं पासेणं वयामो इत्यपि नवरं देशो
भूमेर्महत्खण्डं प्रदेशस्तु लघुतरमिति। २. वही, ८/२९३।
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