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श. ८ : उ. ९ : सू. ३८४-३८७
ओसप्पिणीओ
असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो ॥
१. सूत्र ३८४
पृथ्वीकायिक जीव के सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल अनंत काल है। पृथ्वीकायिक जीव मर कर वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुआ । वनस्पतिकाय का स्थिति काल अनंत काल है। इस अपेक्षा से सर्वबंध का अंतर काल अनंत काल बतलाया गया है। सूत्रकार ने अनंत के तात्पर्य का प्रतिपादन किया है-अनंत काल के समयों की राशि का उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की राशि से अपहार करे तो अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी हो जाती हैं।"
क्षेत्र की अपेक्षा अनंत का तात्पर्य है-अनंत लोक । अनंत काल ३८५. एएसि णं भंते! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेज्जगुणा ॥
३८६. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियवे उव्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउब्विय सरीरप्पयोगबंधे य ॥
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कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः लोकाः एवं देशबन्धान्तरमपि उत्कर्षेण पृथिवीकालः ।
३८७. जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदिय१. भ. वृ. ८/३८४ |
भाष्य
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की समय राशि का लोकाकाश की प्रदेश राशि से भाग देने पर अनंत लोक हो जाते हैं। उन अनंत लोकों के असंख्य पुद्गल परिवर्त हो जाते हैं।
दस कोड़ाक्रोड़ अर्ध पल्योपम का एक सागरोपम, दस कोड़ाक्रोड़ सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल और अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का एक पुद्गल परिवर्त होता है। पुदल परिवर्त के लिए द्रष्टव्य अनुयोगद्वार ६१६ का भाष्य । पृथ्वीकाल के लिए द्रष्टव्य जीवाभिगम ५/८, पन्नवणा १८ / २६ ।
एतेषां भदन्त ! जीवानाम् औदारिकशरीरस्य देशबन्धकानाम्, सर्वबन्धकानाम्, अबन्धकानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः
वा ?
गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धकाः, अबन्धकाः विशेषाधिकाः, देशबन्धकाः असंख्येयगुणाः ।
१. सू. ३८५
औदारिक शरीर के सर्वबंधक उत्पत्ति के समय में ही होते हैं इसलिए वे सबसे अल्प हैं। उसके अबंधक विग्रह गतिक और सिद्ध वेडव्वियसरीरप्पयोगं पडुच्चवैक्रियशरीरप्रयोगं प्रतीत्यवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाएकेन्द्रिय वैक्रियशरीर प्रयोगबन्धश्च पञ्चेन्द्रिय वैक्रिय - शरीरप्रयोगबन्धश्च।
भाष्य
भगवई जघन्यतः तीन समय न्यून दो क्षुल्लक भवग्रहण पूर्ववत् है, उत्कृष्टतः असंख्येय काल- असंख्येय अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय लोक, इसी प्रकार देशबंध का अंतर जघन्यतः एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण, उत्कृष्टतः पृथ्वी काल असंख्येय अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा- असंख्येय लोक ।
यदि एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः किं वायुकायिक- एकेन्द्रियशरीरप्रयोगबन्धः ?
होते हैं इसलिए वे सर्वबंधक की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। देशबंध का काल सर्वबंध की अपेक्षा असंख्यात गुना अधिक है इसलिए वह उससे असंख्यात गुना अधिक है।
वैक्रिय शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३८६. भंते! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध दो प्रकार का प्रज्ञम है - जैसे- एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध, पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध |
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३८५. भंते! इन औदारिक शरीर के देश बंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुन्य अथवा विशेषाधिक हैं?
गौतम! औदारिक शरीर के सर्वबंधक जीव सबसे अल्प हैं। अबंधक विशेषाधिक हैं। देशबंधक असंख्येय गुण हैं।
३८७. यदि एकेन्द्रियवैक्रियशरीर प्रयोग बंध है तो क्या वह वायुकायिकएकेन्द्रियशरीर
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