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________________ भगवई श. ८ : उ. ९ : सू. ३८३,३८४ का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाइं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वे खुड्डाई गौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं दो भवग्रहणे त्रिसमयोने, उत्कर्षेण द्विसाग- समय न्यून दो क्षुल्लक भव ग्रहण, सागरोवमसहस्साई संखेज्जवा- रोपमसहस्रे संख्येयवर्षाभ्यधिके। देश- उत्कृष्टतः संख्येय वर्ष अधिक दो हजार समब्भहियाई। देसबंधंतरं जहण्णेणं बन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्रहणं सागरोपम है। देश बंध का अंतर जघन्यतः खुड्डागं भवग्गहणं समया-हियं, समयाधिकम् उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण, उक्कोसेणं दो सागरोवमसह-स्साई संख्येय- वर्षाभ्यधिके। उत्कृष्टतः संख्येय वर्ष अधिक दो हजार संखेज्जवासमब्भहियाई॥ सागरोपम है। भाष्य १. सूत्र ३८३ सागरोपम त्रसकाय की उत्कृष्ट काय स्थिति में रहा। पुनः एकेन्द्रिय में औदारिक शरीर के निर्माण के अंतरकाल का वैकल्पिक रूप उत्पन्न होकर सर्वबंध किया। इस प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट इस प्रकार है। एक एकेन्द्रिय जीव तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न अंतरकाल सर्वबंध के एक समय से हीन एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट भव हुआ। वह दो समय अनाहारक रहा और तीसरे समय में उसने सर्व स्थिति (बाईस हजार वर्ष) का त्रसकाय की स्थिति में प्रक्षेपण करने बंध किया। सर्व बंध के समय से न्यून क्षुल्लक भव का जीवन जीया। पर संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम होता है। संख्यात स्थानों वहां से मरकर द्वीन्द्रिय आदि में पुनः क्षुल्लक भव का जीवन जीकर के संख्यात भेद होते हैं इसलिए संख्यात वर्ष कहना संगत है।' मरा और अविग्रह गति से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर सर्वबंधक कोई एकेन्द्रिय जीव देशबंधक होकर मरा, द्वीन्द्रिय आदि में बना। इस प्रकार एकेन्द्रिय से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होनेवाले जीव क्षुल्लक भव पूरा कर अविग्रह गति से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ। के सर्वबंध का जघन्य अंतरकाल दो क्षुल्लक भव ग्रहण होता है।' प्रथम समय में सर्वबंध कर दूसरे समय में देशबंधक बना। इस प्रकार कोई जीव अविग्रह गति से एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर प्रथम देश बंध का जघन्य अंतर काल एक समय अधिक क्षुल्लक भव होता समय में सर्वबंधक बना। वहां बाईस हजार वर्ष का जीवन पूरा कर है। देशबंध का उत्कृष्ट अंतर काल सर्वबंध के अंतर काल की भांति त्रसकाय में उत्पन्न हुआ। वहां संख्यात वर्ष अधिक दो हजार वक्तव्य है। ३८४. जीवस्स णं भंते! पुढविक्का- जीवस्य भदन्त! पृथिवीकायिकत्वे, नो ३८४. भंते! पृथ्वीकायिक जीव नो इयत्ते, नोपुढविक्काइयत्ते, पुणरवि पृथिवीकायिकत्वे, पुनरपि पृथ्वीकायिकत्वे पृथ्वीकायिक में जन्म लेकर पुनः पुढविक्काइयत्ते पुढविक्काइय-एगिदिय- पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर- पृथ्वीकायिक में जन्म लेता है। उस ओरालिय-सरीरप्पयोग-बंधतरं कालओ। प्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं अवस्था में पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय केवच्चिरं होइ? भवति? औदारिक शरीर प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाई गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वे खुड्डाई गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः तीन भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं भवग्रहणे त्रिसमयोने, उत्कर्षेण अनन्तं समय न्यून दो क्षुल्लक भवग्रहण, अणंतं कालं-अणंताओ ओसप्पिणीओ कालम्-अनन्ताः अवसर्पिणीः उत्सर्पिणीः उत्कृष्टतः अनंत काल-अनंत उत्सर्पिणीउस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता कालतः, क्षेत्रतः अनन्ताः लोकाः- अवसर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की लोगा- असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते असंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ता,: ते पुद्गल- अपेक्षा अनंत लोक-असंख्येय पुद्गल णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए परिवर्ताः आवलिकायाः असंख्येयतमः । परिवर्त, वे पुद्गल परिवर्त आवलिका के असंखेज्जइभागो। देसबंधंतरं जहण्णेणं भागः। देशबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं असंख्यातवें भाग जितने हैं। देशबंध का खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, भवग्रहणं समयाधिकम्, उत्कर्षेण अनन्तं अंतर जघन्यतः एक समय अधिक क्षुल्लक उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव कालं यावत् आवलिकायाः असंख्येयतमः भव ग्रहण, उत्कृष्टतः अनंत काल यावत् आवलियाए असंखेज्जइ-भागो। जहा भागः। यथा-पृथिवीकायिकानाम् एवं आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने हैं। पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइय- वनस्पतिकायिकवर्जानां यावत् मनुष्या- जैसे-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय की वज्जाणं जाव मणुस्साणं। वणस्सइ- णाम्। वनस्पतिकायिकानां द्वे खुड्डाइं एवं वक्तव्यता है, वैसे वनस्पतिकायिक वर्जित काइयाण दोण्णि खुड्डाई एवं चेव, चैव, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम्- यावत् मनुष्य की वक्तव्यता। उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं- असंख्येयाः अवसर्पिणीः उत्सर्पिणीः वनस्पतिकायिक के सर्वबंध का अंतर १. भ. वृ.८/३८३। ३. वही,८/३८३1 २. वही.८३८३ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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