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________________ श.८ : उ. १ : सू. ८४ ३० भगवई मान्य नहीं है। उनके मत में जो है वह केवल 'विस्रसा' ही है। प्राणी यत्रकामावशायित्व आदि के द्वारा अपनी इच्छा या संकल्प के द्वारा निष्पन्न सारे परिणमन भी अन्ततोगत्वा पुद्गलों का अपना ही। अनुसार प्रकृति में परिणमन कर सकते हैं, यह जीव-प्रयोग परिणमन है-नितान्त विरसा हैं। मिश्र-परिणमन भी प्रयोग- परिणमन का स्पष्ट स्वीकार है। योग सिन्धों को ये शक्तियां होने पर परिणमन के अभाव में सम्भव नहीं है। इस प्रकार चार्वाक का सृष्टि- भी वे पदार्थों में वैपरीत्य नहीं करते हैं या नहीं कर सकते। पदार्थदर्शन केवल विस्रसा-परिणमन को मानकर ही अपना मत प्रस्तुत विपर्यास न करने का हेतु यह है कि ब्रह्माण्ड के पूर्व-सिन्द्र करता है। हिरण्यगर्भ ईश्वर को ब्रह्माण्ड की ऐसी अवस्थिति में ईश्वरवाद यत्रकामावशायित्व है, अर्थात् ब्रह्माण्ड ऐसा ही रहे जैसा कि वर्तमान है, ताकि प्रजागण कर्म करें तथा कर्मफल भी भोगें-ऐसा पूर्वसिद्ध ईश्वरवादी दर्शन-चाहे वह न्याय हो वैशेषिक हो या प्रजापति का संकल्प रहने के कारण ही योगी शक्तिमान होने पर अन्य-सारे परिणमनों को ईश्वरकृत प्रयोग के परिणमन के रूप में भी पदार्थ वैपरीत्य नहीं करते। योगीकरण ईश्वर-संकल्प से मुक्त ही मानता है। उनके मतानुसार मिश्र या विरसा परिणमन संभव ही पदार्थों में यथोचित शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। नहीं है। ईश्वर सृष्टिवाद के निरूपण में जीव प्रयोग परिणाम, मिश्र परिणाम और विरसा परिणाम के मूल में तो ईश्वर प्रयोग ही बौद्ध दर्शन सर्वेसर्वा है। ईश्वर की इच्छा ही इस सृष्टि का जनक है। सारा बौन्द्र दर्शन ने सत्त्व लोक एवं भाजन लोक के रूप में जगत् परिणमन-चक्र इसी केन्द्र को धुरी मानकर घूमता रहता है। को दो भागों में बांटा है। सारा लोक वैचित्र्य (जगत्-परिणमन) सांख्य कर्मज है तथा कर्म चेतना द्वारा कृत है। इस प्रकार समग्र परिणमन चेतना कृत (जीव प्रयोग-परिणाम) है। रूप या पुद्गल स्वतंत्र सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करता परिणमन करता है-ऐसा बौद्ध दर्शन स्वीकार नहीं करता। इस है, पर पुरुष (आत्मा) को सदा निष्क्रिय मानता है। अतः जीव प्रकार विरसा परिणमन और मिश्र परिणमन को बौन्द्र दर्शन ने प्रयोग-परिणाम को संभव नहीं मानता। प्रकृति का परिणमन मूलतः स्वीकार नहीं किया है। विससा है। प्रकृति के स्पर्श, रस आदि गुणों (विषयों) से इन्द्रियां और इन्द्रियों से चित्त तथा चित्त से अन्ततोगत्वा पुरुष वेदान्त 'अयसकांतमणिवत्' दूर से प्रभावित होता है, पर मूलतः अक्रिय होने वेदान्त कूटस्थनित्यवादी तथा ब्रह्माद्वैतवादी दर्शन है। उसके से परिणमन में उसका सीधा प्रभाव कहीं नहीं है। ध्येयवाद या ___ अनुसार सारा परिणमन वास्तविक नहीं है। इस दृष्टि से परिणमनTeloology की तरह उसे केवल परिणमन का 'दूर-स्रोत' माना जा मात्र को वेदान्त तत्वतः स्वीकार ही नहीं करता। सकता है। ध्येयवाद या Teloology में भविष्य को प्रेरक माना ईश्वरवादी धारणा में जहां ब्रह्म को सब जगत् का कारण जाता है। भविष्य हेतु बनता है- वर्तमान परिणमन का। इस प्रकार माना है।" समग्र जगत् जीव प्रयोग परिणाम ही सिद्ध होता है। अक्रिय पुरुष का भविष्य वर्तमान परिणमन का हेतु बनता है। इस काल, नियति, स्वभाव, यदृच्छा, पुरुष सभी को मूलतः कारण नहीं प्रकार की मान्यता के आधार पर सांख्य दर्शन प्रकृति को कथंचित् माना गया। 'प्रयोग-परिणमन' की अधिष्ठात्री मानता है। निष्कर्षतः विससा के वैज्ञानिक अवधारणा अतिरिक्त प्रयोग या मिश्र परिणामों का तत्वतः कोई स्थान सांख्य भौतिक विज्ञान में न्यूटन के यांत्रिक विश्व की अवधारणा में स्वीकार कैसे कर सकता है? सारा परिणमन एक निश्चित नियमावली के अन्तर्गत स्वतः घटित पातञ्जल योग दर्शन होता है और इन वस्तुनिष्ठ नियमों की खोज ही विज्ञान का लक्ष्य इसे सेश्वर सांख्यवाद के रूप में माना जाता है। सांख्य दर्शन है। पुद्गल या भौतिक पदार्थ एवं ऊर्जा का परिणमन विचसा रूप में सम्मत पुरुष प्रकृति के रूप में तत्त्व-निरूपण को स्वीकार करते हुए ही स्वीकार किया गया। चेतन की स्वतंत्र सत्ता विज्ञान का विषय भी ईश्वर-पुरुष विशेष के अस्तित्व को माना है। स्रष्टा, कर्ता तथा नहीं है। इस प्रकार वैज्ञानिक अवधारणा का जगत् केवल विससा संह" सगुण ईश्वर मानकर योगदर्शन ने प्रयोग परिणाम को परिणमनों के रूप में ही स्वीकार किया गया है। स्वीकार किया है, यह स्पष्ट है। योगी जो विशेष सिद्धियों, आधुनिक विज्ञान में सूक्ष्म कणों के परिणमनों की व्याख्या जैसे-अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्य, वशित्व, ईशितृत्व, के साथ चेतना के सम्बन्ध की संभावना स्वीकार की गई है। १. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा पृ. २१५ अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः, आत्मा कपिलदर्शने॥ २. हरिहरानन्द, पा. यो. द. १/४५। टीका पृ.३८५.३८६। ३. कर्मजं लोक वैचित्र्यं, चेतना तत् कृतं च नत् । चेतना मानसं कर्म, तच्च वाक्कायकर्मणी॥ ४. श्वेताश्वतर ३४०/९/२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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