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भगवई
१३. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे परिणतम्, एकं मिश्रकपरिणतम्, द्वे मीसापरिणए, दो वीससापरिणया १४. विस्रसा-परिणते १४. अथवैकं अहवेगे पयोग-परिणए, दो प्रयोगपरिणतम, द्वे मिश्रकपरिणते, एकं मीसापरिणया, एगे वीससा-परिणए विस्रसापरिणतम् १५. अथवा द्वे १५. अहवा दो पयोगपरिणया, एगे प्रयोगपरिणते, एकं मिश्रक-परिणतम्, एक मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए।। विस्रसापरिणतम्।
श.८ : उ. १ : सू. ८२-८४ है, एक मिश्रपरिणत है, दो विरसा परिणत है १४. अथवा एक प्रयोगपरिणत है, दो मिश्रपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है १५.
अथवा दो प्रयोगपरिणत हैं, एक मिश्रपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है।
८३. जइ पयोगपरिणया किं मण- यदि प्रयोगपरिणतानि किं मनःप्रयोगपरि- पयोगपरिणया? वइपयोग-परिणया? णतानि? वाक्प्रयोगपरिणतानि? कायकायपयोगपरिणया?
प्रयोग-परिणतानि? एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस एवम् एतेन क्रमेण पञ्च षट् सप्त यावत् दश संखेज्जा असंखेज्जा अणंता य दव्वा संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि च भाणियव्वा यासंजोएणं तियासंजोएणं द्रव्या-णि भणितव्यानि द्विककसंयोगेन जाव दससंजोएणं बारससंजोएणं त्रिकक-संयोगेन यावत् दशसंयोगेन द्वादशउवजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा संयोगेन उपयुज्य यत्र यावन्तः संयोगा उद्वेति ते सव्वे भाणियव्वा; एए पुण जहा उत्तिष्ठन्ति ते सर्वे भणितव्याः एतान् पुनः नवमसए पवेसणए भणिहामो तहा यथा नवमशते प्रवेशनके भणिष्यामः तथा उवमुंजि-ऊणं भाणियव्वा जाव उपयुज्य भणि-तव्या यावत् असंख्येया असंखेज्जा अणंता एवं चेव, नवरं-एक्कं अनन्ता एवं चैव, नवरं-- एक पदमभ्यधिकं पदं अब्भहियं जाव अहवा अणंता यावत् अथवा अनन्ताः परिमंडलसंस्थानपरिमंडलसंठाणपरिणया जाव अणंता । परिणता यावत् अनन्ता आयतसंस्थानआयतसंठाणपरिणया॥
परिणताः।
८३. यदि प्रयोगपरिणत हैं तो क्या मनप्रयोगपरिणत हैं ? वचनप्रयोगपरिणत हैं? कायप्रयोगपरिणत हैं ? इस प्रकार इस क्रम से पांच, छह, सात, यावत् दस, संख्येय, असंख्येय और अनन्त द्रव्य वक्तव्य हैं-द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग यावत् दस संयोग और द्वादश संयोग की उपयोजना कर जहां जितने संयोग बनते हैं वे सब वक्तव्य हैं। इन्हें जैसे नवें शतक के प्रवेशनक प्रकरण (सूत्र ८६ से ११९) में कहेंगे वैसे ही उपयोजना कर वक्तव्य हैं यावत् असंख्येय और अनन्त की इसी प्रकार वक्तव्यता, इतना विशेष है-एक पद अधिक है यावत् अथवा अनन्त परिमण्डलसंस्थानपरिणत है यावत् अनन्त आयतसंस्थानपरिणत हैं।
८४. भन्ते! इन प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विससापरिणत पुगलों में कौन किनसे अल्प, बहुत. तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
८४. एएसि णं भंते! पोग्गलाणं एतेषां भदन्त! पुद्गलानां प्रयोग- पयोगपरिणयाणं, मीसापरिणयाणं, परिणतानां, मिश्रकपरिणतानां विस्रसा- वीस-सापरिणयाणं य कयरे कयरे. परिणतानाञ्च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा? हिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? बहुका वा ? तुल्या वा ? विशेषाधिका वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पयोग-परिणया, गौतम! सर्वस्तोकाः पुद्गलाः-प्रयोगमीसापरिणया अणंत-गुणा, वीससा- परिणताः, मिश्रकपरिणताः अनन्तगुणाः, परिणया अणंत-गुणा।।
विस्रसापरिणताः अनन्तगुणाः।
गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे कम हैं, मिश्रपरिणत उनसे अनन्तगुना हैं, विवसापरिणत उनसे अनन्त गुना है।
भाष्य
१. सूत्र ४३.८४ भारतीय दर्शनों में सृष्टिवाद
प्रस्तुत आलापक के संदर्भ में समग्र सृष्टिवाद की विज्ञानसम्मत एवं तर्क-संगत व्याख्या संभव है। सृष्टिवाद को विभिन्न भारतीय दर्शनों ने भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। उसकी मीमांसा प्रयोग, मिश्र और स्वभाव जन्य परिणमनों के सन्दर्भ में की जा सकती है।
चार्वाक
चार्वाक दर्शन, जिसे आगमयुगीन भाषा में अक्रियावाद कहा जाता है, केवल पुद्गल-द्रव्य का अस्तित्व एवं उसके परिणमन को ही सृष्टि का कारण मानता है। चेतना या आत्मा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व है ही नहीं जो है वह केवल पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश-इन पांच महाभूतों की ही परिणति विशेष है। मरणोपरान्त पुनः इन्हीं पांच महाभूतों में प्राणी-विशेष का अस्तित्व विलीन हो जाता है। इस प्रकार प्रयोग-परिणमन का अस्तित्व चार्वाक को
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