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भगवई
३४१
श. १० : उ.२ : सू. २१,२२
किच्चा अण्ण-यरेसु देवलोएसु देवत्ताए तरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारः भवन्ति, उववत्तारो भवंति, किमंग! पुण अहं किमंग ! पुनः अहं अणपन्निकदेवत्वम् अपि अण-पन्नियदेवत्तणपि नो लभिस्सामि नो लप्स्ये इति कृत्वा सः तस्य स्थानस्य त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अनालोचित प्रतिक्रान्तः कालं करोति अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि नास्ति तस्य आराधना, सः तस्य स्थानस्य तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं करोति अस्ति आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्य आराधना। तस्स आराहणा।
प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं तो क्या मैं अणपन्निक देवत्व को भी प्राप्त नहीं होऊंगा? ऐसा सोचकर जो उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना होती है।
भाष्य
दोष प्रतिसेवणा अंतिम समय में आलोचना का संकल्प
आलोचना - आराधना अकृत्य स्थान और आलोचना के विषय में निम्नलिखित स्थल
१. सूत्र १९-२१
प्रस्तुत आलापक में दोष की प्रतिसेवना के पश्चात् होने वाली दशा पर विचार किया गया है।दोष प्रतिसेवना के साथ आराधना और विराधना का सामान्य नियम यह है
१.. दोष प्रतिसेवना आलोचना - आराधना
• दोष प्रतिसेवना आनालोचना - विराधना २. दोष प्रतिसेवना अंतिम समय में आलोचना का संकल्प
अनालोचना - विराधना
० भगवती ८/२५१-५५ का भाष्य।
० व्यवहार-सूत्र १/३३ तथा २/१-५। शब्द विमर्श
अणपन्नियं-यह व्यन्तर देव की एक जाति है।
२२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
२२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. (क) ओवा. सू. ४९।
(ख) भ. वृ.१०/।
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