________________
श. १० : उ. २ : सू. १८-२१
३४०
भगवई
भिक्खुपडिमा-पदं भिक्षु-प्रतिमा-पदम्
भिक्षुप्रतिमा-पद १८. मासियण्णं भिक्खुपडिमं पडि- मासिकी भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगा- १८. मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न वन्नस्स अणगारस्स, निच्चं वोसट्ठकाए, रस्य, नित्यं व्युत्सृष्टकाये, त्यक्तदेहे ये अनगार, जो नित्य व्युत्सृष्ट काय और चियत्तदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा केऽपि परीषहोपसर्गाः उत्पद्यन्ते, तद् यथा- त्यक्त देह है, के अनेक परीषह-उपसर्ग उप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा माणुसा। दिव्याः वा, मानुषाः वा, तिर्यग्योनिकाः वा उत्पन्न होते हैं, जैसे-दिव्य, मानुषिक वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्म तान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अथवा तिर्यक्योनिक। वह इन उत्पन्न सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ। एवं अध्यासते। एवं मासिकी भिक्षुप्रतिमा परीषहों को सम्यक् सहन करता है, मासिया भिक्खु-पडिमा निरवसेसा निरवशेषा भणितव्या, यथा दशासु यावत् उनकी क्षमा, तितिक्षा और अधिसहन भाणियन्वा, जहा दसाहिं जाव आराधिता भवति।
करता है। आराहिया भवइ॥
इस प्रकार मासिकी भिक्षुप्रतिमा निरवशेष वक्तव्य है, जैसे-दशाश्रुतस्कंध में यावत्
आराधित होती है।
भाष्य १. सूत्र १८
भिक्ष प्रतिमा का उल्लेख है। शेष प्रतिमाओं के लिए दशाश्रूतस्कंध को भिक्ष-प्रतिमा का नामोल्लेख समवाओ में मिलता है। उसका देखने का निर्देश दिया है। विस्तृत विवरण दशाश्रुतस्कंध में मिलता है प्रस्तुत सूत्र में मासिकी अकिच्चट्ठाणपडिसेवण-पदं अकृत्यस्थानप्रतिसेवन-पदम्
अकृत्य-स्थान-प्रतिसेवन-पद १९. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यतरत् अन्यस्थानं प्रतिषेव्य १९. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का सेवन पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स सः तस्य स्थानस्य अनालोचित-प्रति- कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण अणालोइयपडिक्कत्ते कालं करेइ नत्थि क्रान्तः कालं करोति नास्ति तस्य आरा- किए बिना काल (मृत्यु) को प्राप्त करता तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स धना, सः तस्य स्थानस्य आलोचित-प्रति- है, उसके आराधना नहीं होती। जो उस आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ अत्थि क्रान्तः कालं करोति अस्ति तस्य आरा- स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर तस्स आराहणा।। धना।
काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना होती है।
२०. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिषेव्य २०. 'भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का प्रतिपडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-पच्छा तस्य एवं भवति-पश्चादपि अहं सेवन कर इस प्रकार सोचता है-मैं वि णं अहं चरिमकाल-समयंसि एयस्स चरमकालसमये एतत् स्थानं आलोचयि- पश्चात् चरमकाल के समय में इस स्थान ठाणस्स आलोएस्सामि, पडिक्क- ष्यामि, प्रतिक्रमिष्यामि, निन्दिष्यामि, की आलोचना करूंगा, प्रतिक्रमण मिस्सामि, निंदिस्सामि, गरिहिस्सामि, गर्हिष्ये, व्यावर्तिष्ये, विशोधयिष्यामि, करूंगा, निंदा करूंगा, गर्दा करूंगा, विउट्टिस्सामि, विसोहिस्सामि, अकरणतया अभ्युत्स्थास्यामि, यथारीतं विवर्तन करूंगा, विशोधन करूंगा, पुनः न अकरणयाए अब्भुट्ठिस्सामि, अहारियं प्रायश्चित्तं तपः कर्म प्रतिपत्स्ये, सः तस्य करने के लिए अभ्युत्थान करूंगा। जो पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवन्जि- स्थानस्य अनालोचित-प्रतिक्रान्तः कालं उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण स्सामि, से णं तस्स ठाणस्स करोति नास्ति तस्य, आराधना, सः तस्य किए बिना काल को प्राप्त करता है, अणालोइय-पडिक्कंते कालं करेइ स्थानस्य आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं उसके आराधना नहीं होती। जो उस नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स करोति अस्ति तस्य आराधना।
स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं
काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना करेइ अत्थि तस्स आराहणा।।
होती है।
२१. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यरत् अकृत्यस्थानं प्रतिषेव्य २१. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-जइ तस्य एवं भवति-यदि तावत् श्रमणो प्रतिसेवन कर इस प्रकार सोचता हैताव समणोवासगा वि कालमासे कालं पासकाः अपि कालमासे कालं कृत्वा अन्य- यदि श्रमणोपासक कालमास में काल को १. समवाओ १२/१।
२. दसाओ ७/१.३५।
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only