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भगवई
अर्थ किए हैं- संप्रयोग, पृथग् भाव, विचिन्त्य और विकृति | तात्पर्यार्थ में वीचि का अर्थ है कषायवान । जो संवृत अणगार वीचि पथ - राग मार्ग में स्थित होकर रूपों को देखता है, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। जो संवृत अणगार अवीचि पथअनासक्ति के मार्ग में स्थित होकर रूपों को देखता है, उसके
जोणी पदं
१५. कतिविहा णं भंते! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा - सीया, उसिणा, सीतोसिणा । एवं जोणीपदं निरवसेसं भाणियव्वं ॥
१. सूत्र १५
वेदणा-पदं
१६. कतिविहा णं भंते! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा -सीया, उसिणा, सीओसिणा । एवं वेयणापदं भाणियव्वं जाव
योनि का अर्थ है-जीवों का उत्पत्ति स्थान ।
जिस प्रदेश में तेजस - कार्मण युक्त शरीर का औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर के योग्य पुद्गल स्कंध समूह के साथ जीव मिश्रण करते हैं, उसका नाम है योनि । २
वैज्ञानिक जनन प्रक्रिया के अनुसार शुक्राणु और अण्ड के निषेचन की क्रिया दो प्रकार की होती है- बाह्य निषेचन और
१७. नेरइया णं भंते! किं दुक्खं वेयणं वेदेंति ? सुहं वेयणं वेदेंति, अदुक्खमसुहं वेणं वेदेंति ?
गोमा ! दुक्खं पिवेणं वेदेंति, सुहं पि वेणं वेदंति, अंदुक्खमसुहं पिवेयणं
वेदेति ॥
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योनि-पदम्
कतिविधा भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद् यथाशीता, उष्णा, शीतोष्णा । एवं योनिपदं निरवशेषं भणितव्यम् ।
भाष्य
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ऐर्यापथिकी क्रिया होती है।
द्रष्टव्य भगवती १/४४-४७ तथा भगवती ७/२०-२१ का भाष्य । इस विषय में आचारांग ५/७१ से ७२ का भाष्य द्रष्टव्य है।
वेदना-पदम्
कतिविधा भदन्त ! वेदना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा वेदना प्रज्ञप्ता, तद्यथाशीता, उष्णा, शीतोष्णा । एवं वेदनापदं भणितव्यं यावत्
१. भ. वृ. १०/११ - वीचि शब्दः संप्रयोगे, स च संप्रयोगोर्द्वयोर्भवति ततशचेद् कषायाणां जीवस्य च संबंधो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतो मतुरप्रत्ययस्य षष्ठ्याश्च लोपदर्शनात् अथवा विचिर् पृथग्भावे इति वचनाद विविच्य - पृथग्भूय यथाख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः अथवा विरूपा कृतिः - क्रिया
आंतरिक निषेचन। मछली, मेंढक आदि में यह क्रिया स्त्री के शरीर के बाहर होने के कारण इसे बाह्य निषेचन कहते है। गाय, भैंस, कुत्ता, बंदर और मनुष्य में यह क्रिया स्त्री के शरीर के अंदर होने से इसे आंतरिक निषेचन कहते हैं।
नैरयिकाः भदन्त ! किं दुक्खं वेदनां वेदयन्ति ? सुखं वेदनां वेदयन्ति ? अदुक्खम-सुखं वेदनां वेदयन्ति ? गौतम! दुक्खम् अपि वेदनां वेदयन्ति, सुखम् अपि वेदनां वेदयन्ति, अदुक्खमसुखम् अपि वेदनां वेदयन्ति ।
सूत्रकार ने विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापना के योनि पद को देखने का निर्देश दिया है।
भाष्य
१. सूत्र १६-१७
वेदना शरीर और मन के द्वारा होने वाला संवेदन है। द्रष्टव्य ६ / १८५ का भाष्य
श. १० : उ. २ : सू. १५-१७
योनि - पद
१५. भंते! योनि के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! योनि के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- शीत, उष्ण और शीतोष्ण । इस प्रकार योनिपद (प्रज्ञापना पद ९) निरवशेष वक्तव्य है।
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वेदना-पद
१६. भंते! वेदना के कितने प्रकार प्रज्ञप्स हैं ? गौतम ! वेदना के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-शीत, उष्ण, शीतोष्ण । इसी प्रकार वेदना- पद (प्रज्ञापना पद ३५) वक्तव्य है यावत्
१७. "भंते! क्या नैरयिक दुःख का वेदन करते हैं ? सुख का वेदन करते हैं ? अदुःख - असुख का वेदन करते हैं ? गौतम ! दुःख का वेदन भी करते हैं, सुख का वेदन भी करते हैं, अदुःख असुख का वेदन भी करते हैं।
सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीति ।
२. भ. वृ. १०/१५ - तैजसकार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरीरयोग्यस्कंध समुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवाः यस्यां सा योनिः ।
३. पण्ण. पद. ९ ।
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