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श. १० : उ.२ : सू. १२-१४
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भगवई
चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार के सांपराविकी क्रिया होती है।
१३. भंते ! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है यावत् भंते! क्या उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है ? पृच्छा।
१३. संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स संवृतस्य भदन्त ! अनगारस्य अवीचिपथि
अवीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रुवाइं स्थित्वा पुरतः रूपाणि निध्यायतः यावत् निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते! तस्य भदन्त! किं ऐपिथिकी क्रिया किं इरियावहिया किरिया कज्जइ?- क्रियते?-पृच्छा। पुच्छा । गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स गौतम! संवृतस्य अनगारस्य अवीचिपथि अवीयीपंथे ठिच्चा जाव तस्स णं स्थित्वा यावत् तस्य ऐपिथिकी क्रिया इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो क्रियते, नो साम्परायिकी क्रिया क्रियते। संपराइया किरिया कज्जइ॥
गौतम ! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अणगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है यावत् उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती।
१४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य १४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा संवुडस्स णं जाव इरियावहिया किरिया यावत् ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, नो है-जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, कज्जइ, नो संपराइया किरिया साम्परायिकी क्रिया क्रियते ?
उस संवृत अणगार के ऐपिथिकी क्रिया कज्जइ?
होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती? गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया- गौतम! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः व्य. गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभा वोच्छिणा भवंति तस्स णं वच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ऐपिथिकी क्रिया लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं उसके इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः । ऐपिथिकी क्रिया होती है। जिसके क्रोध, कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा । अव्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य साम्परायिकी मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, भवंति तस्स णं संपराइया किरिया क्रिया क्रियते। यथासूत्रं रीयमाणस्य ईर्या- उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- पथिकी क्रिया क्रियते उत्सूत्रं रीयमाणस्य यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीय- साम्परायिकी क्रिया क्रियते। सः यथासूत्रमेव ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र-सूत्र के माणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।से रीयते। तत् तेनार्थेन यावत् नो साम्परायिकी विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया णं अहासुत्तमेव रीयति। से तेणद्वेणं जाव क्रिया क्रियते।
होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया नो संपराइया किरिया कज्जइ।।
और लोभ व्युच्छिन्न होते हैं) यथासूत्र ही चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, उस संवृत अणगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती।
भाष्य
१.सूत्र-११-१४
भगवती ७/२० में बतलाया गया है-अनायुक्त प्रवृत्ति करने वाले मुनि के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती। भगवती ७/१२५ में बतलाया गया है-आयुक्त प्रवृत्ति करने वाले मुनि के ऐपिथिकी की
ह-आयुक्त प्रवृत्ति करन वाल मुनि के एयापथिकी की क्रिया होती है। प्रस्तुत प्रकरण में उल्लेख है-अवीचि पथ में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है। वीचि पथ में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती। ऐर्यापथिकी क्रिया के स्वरूप को समझने के लिए इन तीनों प्रकरणों का तुलनात्मक
अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है।
ऐपिथिकी क्रिया के संदर्भ में सर्वत्र आयुक्त और अनायुक्त शब्द का प्रयोग हुआ है। अवीचि-पथ और वीचि-पथ का प्रयोग केवल प्रस्तुत प्रकरण में मिलता है।
वीचि शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-संप्रयोग', तरंग, प्रकाश की किरण, आह्लाद, निर्विचार, विधाम, असंगति'., अविवेक, सुख, चमक, दीप्ति, अल्पता, अवकाश, आकाश, संबंध, पृथग्भाव, लघु रथ्या, छोटा मुहल्ला। वृत्तिकार ने वीचि के चार
Delight, Rest, Leisure, ३. पाइय
१. भ. वृ१०.११। २. आप्ट-Wave,
Incanrtancy,
thoughtiessness
Pleasure,
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