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बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
संवृत का क्रिया पद ११. 'राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखना है। भंते! क्या उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है? सांपरायिकी क्रिया होती
संवुडस्स किरिया-पदं
संवृतस्य क्रिया-पदं ११. रायगिहे जाव एवं वयासी-संवु- राजगृहः यावत् एवमवादीत-संवृतस्य डस्स णं भंते! अणगारस्स वीयी-पंथे भदन्त! अनगारस्य वीचिपथि स्थित्वा ठिच्चा पुरओ रुवाइं निज्झायमाणस्स, पुरतः रूपाणि निध्यायतः, 'मग्गओ मग्गओ ख्वाई अवयक्खमाणस्स, रूपाणि पश्यतः, पार्वतः रूपाणि अवलोकपासओ रूवाई अवलोएमाणस्स, उड्ढे मानस्य, ऊर्ध्वं रूपाणि अवलोकमानस्य, रूवाई ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई अधः रूपाणि आलोकमानस्य तस्य भदन्त! आलोएमाणस्स तस्स णं भंते! किं । किम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? इरियावहिया किरिया कज्जइ? साम्परायिकी क्रिया क्रियते? संपराइया किरिया कज्जइ? गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स गौतम! संवृतस्य अनगारस्य वीचिपथि वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं स्थित्वा पुरतः रूपाणि निध्यायतः, निज्झायमाणस्स, मग्गओ रुवाई ‘मग्गओ' रूपाणि पश्यतः, पार्वतः अवयक्खमाणस्स, पासओ रुवाइं रूपाणि अवलोकमानस्य, उर्ध्व रूपाणि अवलोएमाणस्स उड्ढे ख्वाई। अवलोकमानस्य, अधः रूपाणि ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई आलोकमानस्य तस्य नो ऐापथिकी क्रिया आलोएमाणस्स तस्स णं नो क्रियते, साम्परायिकी क्रिया क्रियते। इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ॥
गौतम! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखता है, उसके ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, सांपरायिकी क्रिया होती है।
१२. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य संवुडस्स णं जाव संपराइया किरिया यावत् साम्परायिकी क्रिया क्रियते? कन्जइ?
गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया- गौतम! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः । लोभा वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं व्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ईर्यापथिकी इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं क्रिया क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया- कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा लोभाः अव्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य भवंति तस्स णं संपराइया किरिया साम्परायिकी क्रिया क्रियते। यथासूत्रं कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- रीयमाणस्य ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीय- उत्सूत्रं रीयमाणस्य साम्परायिकी क्रिया माणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।। क्रियते। सः उत्सूत्रमेव रीयते। तत् तेनार्थेन से णं उस्सुत्तमेव रीयति। से तेणटेणं यावत् साम्परायिकी क्रिया क्रियते। जाव संपराइया किरिया कज्जइ॥
१२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार के यावत् सांपरायिकी क्रिया होती है? गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते) उत्सूत्र ही
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