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श. १० : उ. १ : सू. ८,९
दक्षिण- ये चार महादिशाएं हैं।
इनका प्रारंभ दो दो आकाशप्रदेश से होता है। क्रमशः चार, छह, आठ- इस प्रकार वृद्धि होते होते लोकाकाश में असंख्यप्रदेशात्मक और अलोकाकाश में अनंत प्रदेशात्मक हो जाती हैं। ऊर्ध्व और अधः दिशा चार-चार आकाश-प्रदेशों से निष्पन्न होती हैं। चार विदिशाएं चार दिशाओं के कोणों में होती हैं। उनकी रचना एक एक प्रदेश से निष्पन्न है !
चार महादिशाओं की रचना गाड़ी के उन्द्वी के आकार वाली प्रारंभ में संकड़ी और अंत में विस्तृत होती है। चार विदिशाओं की रचना मुक्तावली संस्थान वाली है। ऊर्ध्व और अधः दिशा की रचना रुचक आकार वाली है। भगवती के तेरहवें शतक में दिशा का वर्णन उपलब्ध है। '
आवश्यक नियुक्ति में दिशा के सात प्रकार बतलाए गए हैं१. नाम दिशा २ स्थापना दिशा ३ द्रव्य दिशा ४. क्षेत्र दिशा ५. ताप क्षेत्र दिशा ६. प्रज्ञापक दिशा ७. भाव दिशा ।
व्यवहार में दिशा का प्रयोग सूर्य के उदय से संबद्ध है। वह ताप - क्षेत्र दिशा है। रुचक के आठ प्रदेशों से उद्भूत होने वाली दिशा क्षेत्र दिशा है। जीव के वर्तमान पर्याय का बोध कराने वाली दिशा भाव दिशा है। प्रस्तुत आलापक में क्षेत्र दिशा और भाव दिशा की दृष्टि से विमर्श किया गया है। भाव दिशा के साथ अजीव द्रव्य का परामर्श भी उपलब्ध है ।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के
सरीर - पदं
८. कति णं भंते! सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए वेडव्विए आहारए तेयए
कम्मए ॥
९. ओरालियसरीरे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
एवं ओगाहणासंठाणं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अप्पाबहुगं ति ॥
३३६
१. आव वृ. प. ४३८
सगडुद्धि संठियाओ, महादिशाओ हवंति चत्तारि । मुक्तावली य चउरो दो चेव य हुति रु अगनिभा ॥
२. भ. १३ / ५२-५४।
भगवई
साथ अनिन्द्रिय जीव का उल्लेख है । अनिन्द्रिय का अर्थ है-केवली ।* एकेन्द्रिय जीव प्राची आदि दिशाओं में व्याप्त हैं। धर्मास्तिकाय आदि का देश-भाग भी दिशाओं में व्याप्त है। इस अपेक्षा से छहो दिशाओं को जीव और अजीव दोनों बतलाया गया है।
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विदिशाएं एक प्रदेशात्मक हैं इसलिए उनके अनेक विकल्प बनते हैं।
जीव असंख्य प्रदेशात्मक आकाशप्रदेश के बिना नहीं रह सकते इसलिए विदिशा, ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा में केवल जीव के देश का ही अस्तित्व हो सकता है।
पुद्गल स्कन्ध एक आकाशप्रदेश में भी रह सकता है इसलिए उसका अस्तित्व सभी दशों दिशाओं में हो सकता है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय अखंड द्रव्य हैं इसलिए इनके देश का अस्तित्व सभी दिशाओं में हो सकता है| देखें यंत्र
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भाष्य
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१. सूत्र - ८-९
द्रष्टव्य- भगवती १ / ३४०-३४४ तथा भगवती ८ / ३६६-३७२ का भाष्य ।
१०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
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शरीर-पदम्
कति भदन्त ! शरीराः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! पञ्च शरीराः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-औदारिकः वैक्रियः आहारकः तैजसः कर्मकः ।
औदारिकशरीरः कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
एवम् अवगाहना संस्थानं निरवशेषं भणितव्यं यावत् अल्पबहुकम् इति ।
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शरीर पद
८. भंते! शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! शरीर पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
९. भंते! औदारिक शरीर कितने प्रकार के प्रज्ञम हैं ?
इस प्रकार अवगाहन संस्थान पढ (प्रज्ञापना २१) निरवशेष वक्तव्य है यावत् अल्प- बहुत्व तक।
१०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
३. आव. ८०५ - विशेष वर्णन के लिए द्रष्टव्य श्री भिक्षु आगम विषयकोश पृ. ५६७-५६८।
४. (क) भ. वृ. ९-तत्र ते जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनः (ख) भ. जो. ३/२१७/२३/
५. भ. वृ. ९१ ।
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