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भगवई
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तिय-भंगो। जे जीवपदेसा ते नियमा त्रिकभंगः। ये जीवप्रदेशाः ते नियमात् एगिदियपदेसा। अहवा एगिंदियपदेसाय एकेन्द्रियप्रदेशाः। अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः च बेइंदियस्स पदेसा, अहवा एगिंदिय- द्वीन्द्रियस्य प्रदेशः, अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः पदेसा य बेइंदियाण य पदेसा। एवं च द्वीन्द्रियाणां च प्रदेशाः। एवम् । आइल्लविरहिओ जाव अणिंदियाणं। आदिमविरहितः यावत् अनिन्द्रियाणाम्।
श. १० : उ. १ : सू. ६,७ विकल्प वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय के तीन भंग वक्तव्य है। जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं
और द्वीन्द्रिय के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रियों के प्रदेश हैं। इसी प्रकार प्रथम विकल्प विरहित यावत् अनिन्द्रिय की वक्तव्यता। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रूपी-अजीव, अरूपी अजीव।
जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं ये अजीवाः ते द्विविधाः प्रज्ञप्लाः, तद् जहा-रूविअजीवा य, अरूवि-अजीवा यथा-रूपिअजीवाः च, अरूपिअजीवाः।
य।
जे रूविअजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता, तं ये रूपि-अजीवाः ते चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् । जहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला। यथा-स्कन्धाः यावत् परमाणुपुद्गलाः। जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, ये अरूपि-अजीवाः ते सप्तविधाः प्रज्ञसाः, तं जहा-नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थि- तद्यथा-नोधर्मास्तिकायः धर्मास्तिकायस्य कायस्स देसे, धम्मत्थि-कायस्स पदेसा, देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, एवम् एवं अधम्मत्थि-कायस्स वि जाव अधर्मास्तिकायस्य अपि यावत् आगासत्थि-कायस्स पदेसा, आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः, अद्धासमयः। अद्धासमए॥
जो रूपी-अजीव हैं, वे चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-स्कन्ध यावत् परमाणु पुद्गल। जो अरूपि-अजीव है-वे सात प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसे नोधर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय नहीं है, धर्मास्तिकाय का देश है, धर्मास्तिकाय के प्रदेश है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय की वक्तव्यता यावत् आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं। अध्वा समय है।
७. जम्मा णं भंते! दिसा किं जीवा? याम्या भदन्त ! दिशा किं जीवाः ? ७. भंते! क्या याम्या दिशा जीव है ? जहा इंदा। तहेव निरवसेसं नेरतीय जहा यथा इन्द्रा तथैव निरवशेषम्। नैर्ऋतीच यथा जैसे ऐन्द्री वैसे ही याम्या की निरवशेष अग्गेयी। वारुणी जहा इंदा। वायव्वा । आग्नेयी। वारुणी यथा इन्द्रा। वायव्या यथा वक्तव्यता। नैर्ऋती आग्नेयी की भांति, जहा अग्गेयी। सोमा जहा इंदा। ईसाणी आग्नेयी। सौम्या यथा इन्द्रा। ऐशानी यथा वारुणी ऐन्द्री की भांति, वायव्या आग्नेयी जहा अग्गेयी। विमलाए जीवा जहा आग्नेयी। विमलायाः जीवाः यथा की भांति, सौम्या ऐन्द्री की भांति, अग्गेयीए, अजीवा जहा इंदाए। एवं आग्नेय्याः, अजीवाः यथा इन्द्रायाः। एवं ऐशानी आग्नेयी की भांति, विमला के तमाए वि, नवरं-अरूवी छविहा, तमायाः अपि, नवरम्-अरूपिणः जीव आग्नेयी की भांति और अजीव ऐन्द्री अद्धासमयो न भण्णति॥ षविधाः, अध्वसमयः न भण्यते।
की भांति वक्तव्य हैं। इसी प्रकार तमा की वक्तव्यता, इतना विशेष है-अरूपी अजीव के छह प्रकार हैं, अध्वा समय वक्तव्य
नहीं है।
भाष्य १. सूत्र १-७
अपेक्षा छह दिशाएं और चार विदिशाएं हैं। प्रस्तुत आलापक में दश दिशाओं का निरूपण है। स्थानांग जैन दर्शन के अनुसार दिशा स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। वह के छठे स्थान में छह और दसवें स्थान में दश दिशाएं बतलाई गई आकाश के प्रदेशों की विशिष्ट रचना है। तिरछे लोक के मध्य में हैं। वास्तव में दिशाएं छह हैं, चार विदिशाएं हैं। जीवों की गति आकाश के आठ प्रदेश वाला रुचक है। उसके आठ प्रदेश गोस्तनआदि सभी प्रवृत्तियां छहों दिशाओं में ही होती हैं, चार विदिशाओं आकार वाले हैं-चार ऊपर और चार नीचे। वह रुचक सब दिशाओं में नहीं होती। इसलिए दिशा और विदिशा का विभाग बहुत सार्थक और विदिशाओं का प्रवर्तक है। सिद्धसेन गणि के अनुसार आठ है। समुच्चय की अपेक्षा दश दिशाएं बतलाई गई है किन्तु कार्य की प्रदेश वाला रुचक नैश्चयिक दिशा है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और
१. (क) ठाणं, ६/३७।
(ख) वही, १०/३०-३१॥
(ग) भ..२/२-७। २. नंदी, मवृ. प.११०।
३. (क) त. सू. भा. वृ. ३/१० पृ. २५४-अथ नैश्चयिकी दिक कथं
प्रतिपत्तव्येत्यत आह(ख) वही ३/१० का भाष्य-लोकमध्यावस्थितं त्वष्टप्रदेशं रुचकं दिग्नियम
हेतुं प्रतीत्य यथासंभवं भवतीति।
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