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तइयो उद्देसो : तृतीय उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
आइड्डीए परिड्डीए वीइवयण-पदं आत्मा परया व्यति-व्रजन-पदम् २३. रायगिहे जाव एवं वयासी-आइडीए राजगहः यावत एवमवादीत-आत्मा णं भंते! देवे जाव चत्तारि, पंच भदन्त ! देवः यावत् चत्वारि, पञ्च देवावासंतराई वीतिक्कंते, तेण परं । देवावासान्तराणि व्यतिक्रान्तः, तेनं परं परिड्डीए?
परद्धा ।
हंता गोयमा! आइड्डीए णं देवे जाव हन्त गौतम! आत्मा देवः यावत् चत्तारि, पंच देवावासंतराई वीतिक्कते, चत्वारि, पञ्च देवावासान्तराणि व्यतितेण परं परिड्डीए। एवं असुरकुमारे वि, क्रान्तः, तेन परं परा । एवम् असुर- नवरं-असुर-कुमारावासंतराई, सेसं तं __ कुमारोऽपि, नवरम् असुरकुमारावासाचेव। एवं एएणं कमेणं जाव थणिय- न्तराणि, शेषं तच्चैव । एवम् एतेन क्रमेण कुमारे, एवं वाणमंतरे,जोइसिए वेमाणिए यावत् स्तनितकुमारः, एवं वानमन्तरः, जाव तेण परं परिड्डीए॥
ज्योतिष्कः वैमानिकः यावत् तेन परं परद्ध्या ।
आत्मर्धिक परर्धिक व्यतिव्रजन पद २३. 'राजगह नगर यावत गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! देव आत्म-ऋद्धि के द्वारा यावत् चार-पांच देव-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है, उसके पश्चात् पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है ? हां गौतम ! देव आत्मऋद्धि के द्वारा यावत् चार-पांच देव-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है, उसके पश्चात पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है। इसी प्रकार असुरकुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-असुरकुमार-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार इस क्रम से यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक यावत उसके पश्चात् पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है।
भाष्य
१.सूत्र २३
प्रस्तुत सूत्र में देव की गति-शक्ति का नियम बतलाया गया है। सामान्यतः एक देव आत्मऋद्धि-अपनी शक्ति से चार-पांच देवावास तक जा सकता है। उससे आगे जाना हो तो उसे परऋद्धि-पर शक्ति की अपेक्षा रहती है।
इस प्रकरण में आत्मऋद्धि और परऋद्धि-ये दोनों शब्द विमर्शनीय है।देव के स्थूल शरीर-वैक्रिय शरीर होता है। उसके दो प्रकार हैं-भव धारणीय और उत्तर वैक्रियक। भवधारणीय वैक्रिय शरीर की शक्ति को आत्मऋद्धि, उत्तर वैक्रयिक शरीर की शक्ति
को पर-ऋद्धि कहा जा सकता है। भगवती के अनुसार भवधारणीय शरीर जन्म के मूल स्थान में रहते हैं। उत्तर वैक्रियक शरीर बाहर जाते हैं।२. तिलोयपण्णत्ती में भी इसका उल्लेख मिलता है।
तात्पर्य यह है कि देव मूल शरीर अथवा भवधारणीय शरीर से अधिक गति नहीं कर सकते। उनकी लंबी यात्रा उत्तर-वैक्रिय शरीर के द्वारा ही निष्पन्न होती है।
पर-ऋद्धि का एक अर्थ दूसरे का सहारा हो सकता है। असुरराज चमर भगवान महावीर का सहारा लेकर सौधर्म कल्प तक गया था। पर-ऋद्धि का एक अर्थ पराभियोग भी हो सकता है।'
१. पण्ण. २१/७०। २. भ, वृ.१० देवः किल प्रायो देवस्थान एवं वर्तत इति तत्र गतानदेवलोकादिगतान् यतः कृतोत्तरः वैक्रियरूपः एव प्रायोन्यत्र गच्छतीति नो इह गतान पुदगलान पर्यादाय इत्याधुक्तमिति। ३. तिलोयपण्णत्ति ५९५
गम्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहासुराण गच्छंति। जम्मण ठाणेसु सुह, मूल सरीराणि चेटुंति॥
४. भ. ३/९५. ११२। ५. त. सू. भा. वृ. ४/२२ भाष्य-यस्माच्चाचरित्तिर्यगूध्वं च त्रीनपि लोकान स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात, पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपत्नन्त्य नियतगतिप्रचाराः।...........स्वातंत्र्यात्-स्वेच्छया,पराभियोगाच्च शक्रादिदेवेन्द्राशया चक्रवादिपुरुषाज्ञया वा प्रायोऽनियतगतिप्रचारा भवन्तीति।
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