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भगवई
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४३२. नीयागोयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे नीचगोत्रकर्मशरीरप्रयोबन्धः भदन्त ! कस्य णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएण? कर्मणः उदयेन? गोयमा! जातिमदेणं, कुलमदेणं, बल- गौतम ! जातिमदेन, कुलमदेन, बलमदेन, मदेणं, रूबमदेणं, तवमदेणं, सुयमदेणं, रूपमदेन, तपःमदेन, श्रुतमदेन, लाभमदेन, लाभमदेणं, इस्सरिय-मदेणं नीयागोय- ऐश्वर्यमदेन नीचगोत्रकर्मकशरीरप्रयोगकम्मासरीरप्पयोग-नामाए कम्मस्स नाम्नः कर्मणः उदयेन नीचगोत्रकर्मकशरीरउदएणं नीयागोय-कम्मासरीरप्पयोग- प्रयोगबन्धः।
श. ८ : उ.९ : सू. ४३२,४३३ ४३२. भंते! नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? गौतम ! नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग बंध के नौ हेतु हैं-जाति का मद करना, कुल का मद करना, बल का मद करना, रूप का मद करना, तप का मद करना, श्रुत का मद करना, लाभ का मद करना, ऐश्वर्य का मद करना, नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
बंधे।
भाष्य १.सूत्र ४३१-४३२
उच्च गोत्र और नीच गोत्र के बंध के हेतु स्पष्ट हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उच्च गोत्र और नीच गोत्र के आश्रवों का निर्देश भिन्न है।
नीच गोत्र परनिंदा आत्म प्रशंसा सद्गुण का उच्छादन असद्गुण का उद्भावन
उच्च गोत्र पर प्रशंसा आत्मनिंदा सद्गुण का उद्भावन असद्गुण का उच्छादन नम्र वृत्ति अनुत्सेक
४३३. अंतराइयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे आन्तरायिककर्मक - शरीरप्रयोग - बन्धः
णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन? गोयमा! दाणंतराएणं, लाभंतरा-एणं, गौतम! दानान्तरायेन, लाभान्तरायेन भोगंतराएणं, उवभोगंतराएणं, वीरियंत. भोगान्तरायेन, उपभोगान्तरायेन, वीर्या- राएणं, अंतराइयकम्मासरीरप्पयोग- न्तरायेन आन्तरायिककर्मकशरीरप्रयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइय- नाम्नः कर्मणः उदयेन आन्तरायिककम्मासरीरप्पयोगबंधे।
कर्मकशरीरप्रयोगबन्धः।
४३३. 'भंते! आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम! आन्तरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध के छह हेतु हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यांतराय, आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
भाष्य
१.सूत्र ४३३ अंतराय कर्म के हेतु
१. दानान्तराय-दान में विघ्न उपस्थित करना, जिससे दाता न दे सके।
२. लाभान्तराय-लाभ में विघ्न उपस्थित करना, जिससे आदाता न ले सके।
३. भोगान्तराय-शब्द आदि विषय के अनुभव में विघ्न उत्पन्न करना, जिससे भोक्ता भोग न कर सके।
४. उपभोगान्तराय-अन्न, पान. वस्त्र आदि के आसेवन में विघ्न उपस्थित करना, जिससे उपभोक्ता उपयोग न कर सके।
५. वीर्यान्तराय-विशिष्ट चेष्टा में विघ्न उपस्थित करना, जिससे उत्साह और पराक्रम मंद हो जाए।
कर्मशरीर प्रयोग के बंध के आलापक (८/४१९.४३३) में बंध के अनेक हेतु बतलाए गए हैं। इस विषय में पूज्यपाद ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-तत्प्रदोष, निहव आदि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के प्रतिनियत आश्रव हैं अथवा सब कर्मों के सामान्य आश्रव? यदि प्रतिनियत आश्रव माना जाए तो आगम-विरोध का प्रसंग आएगा। आगम का सिद्धांत यह है कि आयुष्य को वर्ज कर सात कर्म का बंध प्रतिक्षण होता है। यदि बंध हेतुओं को सब कर्मों के लिए सामान्य माना जाए तो प्रस्तुत प्रकरण में विशेष उल्लेख सार्थक नहीं होगा। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया गया है-तत्प्रदोष निव आदि आश्रव सब कर्मों के प्रदेश बंध में सामान्य हेतु बनते हैं। वे ज्ञानावरण दर्शनावरण के अनुभाग बंध के विशेष हेतु बनते हैं इसलिए इनका विशेष आश्रव के रूप में उल्लेख किया गया है।*
१. न. स. भा. वृ. ६/२४.२५--परात्मनिंदाप्रशंसासदसद्गुणाच्छादनोदभावने
च नीचैर्गावस्या नविपर्ययी नीचैर्वृत्त्यनुत्सको चोनरस्य। २. (क) त. सू. भा. वृ. ६.२६-विघ्नकरणमंतरायस्य. दानादीनां विघ्नकरणमंतरायाश्रवो भवतीति। (ख) वही, खंड-२ भाष्यानुसारिणी पृ. ३०-४०।
३. (क) भ.६/१६२।
(ख) पण्ण.२६/१-१२। ४. (क) सर्वार्थसिद्धि. ६/२७ का भाष्य।
(ख) त, रा. वा. ६/२७ की वृत्ति।
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