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भगवई
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श.८ : उ. २ : सू. १०५-१०७
१. द्विज्ञानी-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान सम्पन्न ।
२. त्रिज्ञानी-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान सम्पन्न अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मनःपर्यवज्ञान सम्पन्न।
३. चतुर्जानी-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान सम्पन्न।
४. एकज्ञानी-नियमतः केवलज्ञान सम्पन्न ।
अज्ञान तीन हैं। उसकी उपलब्धि की दृष्टि से दो विकल्प होते हैं
द्वि-अज्ञानी-मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान से सम्पन्न ।
त्रि-अज्ञानी-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान से सम्पन्न।
१०५. नेरझ्या णं भंते! किं नाणी? नैरयिकाः भदन्त! किं ज्ञानिनः? १०५. 'भन्ते! नैरयिक क्या ज्ञानी हैं ? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? गोयमा! नाणी, वि. अण्णाणी वि। जे गौतम' ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये गौतम! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो नाणी ते नियमा तिण्णाणी, तं ज्ञानिनः ते नियमात् विज्ञानिनः, तद्यथा- ज्ञानी हैं वे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं, तहा-आभिणिबोहियनाणी, सुय-नाणी, आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, जैसे-आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और
ओहिनाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया । अवधिज्ञानिनः। ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके अवधिज्ञान वाले हैं। जो अज्ञानी हैं उनमें दुअण्णाणी, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। द्वि-अज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिअज्ञानिनः। कुछ दो अज्ञान वाले, कुछ तीन अज्ञान एवं तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। एवं त्रीणि अज्ञानानि भजनया।
वाले हैं। इस प्रकार तीन अज्ञान की
भजना है।
भाष्य १. सूत्र १०५
होते हैं। इस अपेक्षा से द्वि-अज्ञानी विकल्प बनता है। जो मिथ्यादृष्टि जो असंही जीव नरक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अपर्याप्तक अवस्था संज्ञी नरक में उत्पन्न होते हैं, उनमें भव प्रत्यय विभंगज्ञान होता है। में विभंगज्ञान नहीं होता इसलिए उत्पत्ति काल में उनमें दो अज्ञान इस प्रकार वे त्रि-अज्ञानी होते हैं। यह अभयदेव सूरि की व्याख्या है।'
१०६. असुरकुमारा णं भंते! किं नाणी? असुरकुमाराः भदन्त! किं ज्ञानिनः? अण्णाणी?
अज्ञानिनः? जहेव नेरइया तहेव, तिण्णि नाणाणि यथैव नैरयिकाः तथैव, त्रीणि ज्ञानानि नियमा, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए? । नियमात्, त्रीणि अज्ञानानि भजनया एवं एवं जाव थणियकुमारा॥
यावत् स्तनितकुमाराः।
१०६. 'भन्ते! असुरकुमार क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? जैसे नैरयिकों की वक्तव्यता वैसे ही यहां वक्तव्य है-तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, तीन अज्ञान की भजना है। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता।
भाष्य
१. सूत्र १०६
भवनपति और व्यंतर देवों (सूत्र १०८) में असंज्ञी अमनस्क तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। प्रस्तुत आगम के प्रथम शतक में
स्पष्ट निर्देश है कि असंही जीव जघन्यतः भवनपति. उत्कृष्टतः वानमंतर में उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनमें नैरथिक की भांति द्वि-अज्ञानी और त्रि-अज्ञानी दोनों विकल्प मिलते हैं।
अनार
१०७. पुढविक्काइया ण भंते! किं नाणी? पृथ्वीकायिकाः भदन्त ! किं ज्ञानिनः? १०७. भन्ते! पृथ्वीकायिक क्या ज्ञानी हैं? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? गोयमा! नो नाणी, अण्णाणी। जे गौतम! नो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः। ये । गौतम! ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। जो अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी- अज्ञानिनः ते नियमात् द्वि-अज्ञानिन:- अज्ञानी हैं वे नियमतः दो अज्ञान वाले हैंमइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। एवं जाव। मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिश्च। एवं मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाले। इस वणस्सइकाइया॥ यावत् वनस्पतिकायिकाः।
प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता।
१. भ. वृ. ८/१०५-असंजिनः संतो ये नारकेषूत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तकावस्थायाँ विभंगाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्यज्ञानिनः। ये तु मिथ्यादृष्टि संज्ञिभ्य उत्पद्यन्त तेषां भवप्रत्ययो विभंगो भवतीति ते त्र्यज्ञानिनः।
२.(क) भ. १/११३।
(ख) वही, १/११३ का भाष्य पृ. ६८।
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