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श.८ : उ. २ : सू. १०४
भगवई
इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला बोध है।' श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला श्रुतग्रन्थानुसारी बोध है। ___अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष अवधान से होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। इससे अधोवर्ती वस्तु का परिच्छेद होता है।'
मनःपर्यवज्ञान-मनोवर्गणा के आधार पर मन के भावों को जानने वाला ज्ञान।
केवलज्ञान-सब द्रव्यों और सब पर्यायों का साक्षात् करने वाला ज्ञान।
मतिअज्ञान-मति ज्ञान का विपर्यय। श्रुत अज्ञान-श्रुत ज्ञान का विपर्यय। विभंगज्ञान-अवधि ज्ञान का विपर्यय। ० अवग्रह-इन्द्रिय और अर्थ का संयोग होने पर दर्शन के पश्चात्
जो सामान्य का ग्रहण होता है, उसे अवग्रह कहा जाता है।''
० व्यंजनावग्रह-व्यंजन के द्वारा व्यंजन के ग्रहण- अव्यक्त ज्ञान को व्यंजनावग्रह कहा जाता है।'
० अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त किन्तु जाति, द्रव्य, गुण आदि कल्पना से रहित जो अर्थ का ग्रहण होता है, उसे अर्थावग्रह कहा जाता है, जैसे-यह कुछ है।
.ईहा-'अमुक होना चाहिये इस प्रकार के प्रत्यय को ईहा कहा जाता है।
० अवाय-'अमुक ही है' ऐसे निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहा जाता है, जैसे-यह शब्द ही है।
० धारणा-निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति। पसय-Indian Bison-गौर, दो खुर वाला जंगली पशु।
जीवों का ज्ञानि-अज्ञानित्व-पद १०४.'भन्ते! जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी
जीवाणं नाणि-अण्णाणित्त-पदं
जीवानां ज्ञानि-अज्ञानित्व-पदम १०४. जीवा णं भंते! किं नाणी? जीवाः भदन्त ! किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः?
अण्णाणी? गोयमा! जीवा नाणी वि, अण्णाणी वि। गौतम! जीवाः ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानि- जे नाणी ते अत्थेगतिया दुण्णाणी, नोऽपि। ये ज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्वि- अत्थेगतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया ज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः, चउनाणी, अत्थेगतिया एगनाणी। जे अस्त्येकके चतु-ानिनः, अस्त्येकके एकदुण्णाणी ते आभिणि-बोहियनाणी ज्ञानिनः। ये द्विज्ञानिनः ते आभिनि- सुयनाणी य। जे तिण्णाणी ते आभिणि- बोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च। ये त्रि- बोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, ज्ञानिनः ते आभिनि-बोधिकज्ञानिनः, श्रुतअहवा आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ज्ञानिनः, अवधि-ज्ञानिनः, अथवा आभि- मणपज्जवनाणी। जे चउनाणी ते निबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, मनःपर्यवआभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहि- ज्ञानिनः। ये चतुर्जानिनः ते आभिनाणी, मणपज्जवनाणी। जे एगनाणी ते । निबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, अवधिनियमाकेवलनाणी॥
ज्ञानिनः, मनःपर्यव-ज्ञानिनः। ये एकज्ञानिनः
ते नियमात् केवलज्ञानिनः। जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्वि-अज्ञानिनः, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। जे दुअण्णाणी अस्त्येकके त्रिअज्ञानिनः। ये द्वि-अज्ञानिनः ते मइ-अण्णाणी सुयअण्णाणी य। जे ते मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनश्च। ये ति-अण्णाणी ते मइअण्णाणी, सुय- त्रि-अज्ञानिनः ते मति-अज्ञानिनः, श्रुत- अण्णाणी, विभंगनाणी॥
अज्ञानिनः, विभंगज्ञानिनः।
गौतम ! जीव ज्ञानी भी हैं. अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी है उनमें कुछ दो ज्ञान वाले, कुछ तीन ज्ञान वाले, कुछ चार ज्ञान वाले और कुछ एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं अथवा आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियमतः केवलज्ञानी है। जो अज्ञानी हैं उनमें कुछ दो अज्ञान वाले, कुछ तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाले हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान वाले हैं।
भाष्य
१. सूत्र १०४
प्रस्तुत सूत्र में जीव शब्द संसारी जीव के लिए विवक्षित है। सम्यकदृष्टि का बोध ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का बोध अज्ञान कहलाता
है। जीव शब्द सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों का संग्राहक है इसलिए उसे ज्ञानी और अज्ञानी दोनों कहा गया है।
ज्ञान पांच हैं। उसकी उपलब्धि की दृष्टि से चार विकल्प होते हैं--
१. भ. वृ.८.१७-आभिनिबोधिकं ज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति। ६.जैन सिद्धांत दीपिका पृ.३८। २. वही, ८/९७--श्रुतज्ञान-इन्द्रियमनोनिमितः श्रुतग्रन्थानुसारी बोध इति। ७. वही पृ. ३८ ३. वहीं, ८१९७-अवधीयते-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः। । ८. वही पृ. ३८५ ४. जैन सिद्धान्त दीपिका पृ. ३७।
९.वही पृ. ३८। ५. वही पृ.३७।
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