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भगवई
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श. ८ : उ. २ : सू. १०३ हैं। प्रस्तुत प्रकरण में संस्थान के आधार पर विभंगज्ञान के अनेक नियुक्ति में अवधिज्ञान के क्षेत्र परिमाण और संस्थान का अन्तर प्रकारों का उल्लेख है। आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि और विमर्शनीय है। चूर्णिकार के अनुसार संस्थान क्षेत्र की अपेक्षा से है विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान के संस्थानों का निरूपण उपलब्ध फिर क्षेत्र परिमाण और संस्थान के बीच भेदरेखा खींचना आवश्यक है। उनमें क्षेत्र की अपेक्षा संस्थानों की चर्चा की गई है। यह विमर्शनीय है। नंदी में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय का आहारक सूक्ष्म है। आवश्यक नियुक्ति में अवधिज्ञान के क्षेत्र परिमाण पर विचार कर पनक जीव बतलाया गया है। आवश्यक नियुक्ति में जघन्य अवधिज्ञान तदन्तर उसके संस्थान पर विचार किया गया है। पैंतालीस गाथा से का संस्थान जल बिन्दु बतलाया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता तिरेपन गाथा तक अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र का निरूपण है।२ है कि क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की दृष्टि से बतलाया गया है और उसका चौपनवीं और पचपनवीं गाथा में उसके संस्थान का निरूपण किया संस्थान ज्ञान के आकार की दृष्टि से बतलाया गया है। गया है। जघन्य अवधिज्ञान का संस्थान जल बिन्दु के समान, उत्कृष्ट षट्खण्डागम में ये संस्थान शरीर के बतलाए गए हैं। उसका अवधिज्ञान का संस्थान वर्तुल और लोक की अपेक्षा किंचित् आयत उल्लेख है-जैसे शरीर और इन्द्रियों का प्रतिनियत संस्थान होता है, तथा मध्यम अवधिज्ञान का संस्थान क्षेत्र की अपेक्षा अनेक प्रकार का वैसे अवधिज्ञान का प्रतिनियत नहीं होता किन्तु अवधि- ज्ञानावरणीय होता है। जैसे
के क्षयोपशम प्राप्त जीव प्रदेशों के करण-रूप शरीर प्रदेश अनेक १. छोटी नौका-डोंगी। इस आकार का अवधिज्ञान नैरयिकों के संस्थानों से संस्थित होते हैं। वे संस्थान शरीरगत होते हैं। कुछ होता है।
संस्थानों के नामों का उल्लेख भी मिलता है। श्रीवत्स, कलश, शंख, २. पल्यक-अनाज का कोठा। इस आकार का अवधिज्ञान स्वस्तिक, नंदावर्त आदि अनेक आकार होते हैं। भवनपति देवों के होता है।
धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का उल्लेख मिलता ३. पटह-इस आकार का अवधिज्ञान वाणमंतर देवों के होता हैं। आवश्यक नियुक्ति के व्याख्याकारों ने अवधिज्ञान के संस्थानों
को शरीरगत संस्थान नहीं माना। गोम्मटसार, धवला में उन्हें शरीरगत ४. झल्लरी-इस आकार का अवधिज्ञान ज्योतिष्क देवों के होता । संस्थान माना गया है। यह शरीरगत संस्थान वाला मत अधिक
उपयुक्त प्रतीत होता है। ५. मृदंग-इस आकार का अवधिज्ञान कल्पवासी (सौधर्म से अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता अच्युत तक) वैमानिक देवों के होता है।
है। जैसे जालीदार ढक्कन के छिद्रों से दीये का प्रकाश बाहर फैलता ६. पुष्प चंगेरी-फूलों की टोकरी। इस आकार का अवधिज्ञान है वैसे ही अवधिज्ञान का प्रकाश शरीर के स्पर्धकों के माध्यम से ग्रैवेयक देवों के होता है।
बाहर फैलता है, यह आवश्यक वृत्ति में स्पष्ट है।" नंदी चूर्णि में भी ७. यवनालक-कन्या का चोला। इस आकार का अवधिज्ञान इसका उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान की अनुत्तरोपपातिक देवों के होता है।'
प्रकाश रश्मियों के संस्थान का प्रतिपादन किया किन्तु उनके संस्थान नैरयिक और देवों का अवधिज्ञान नियत संस्थान वाला होता का आधार शरीरगत संस्थान बनते हैं, इसका उल्लेख नहीं किया। है। तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान अनियत संस्थान वाला भी शरीरगत संस्थान के आधार पर ही प्रकाश रश्मियों के संस्थान का होता है।
निर्धारण हो सकता है। तिर्यंच और मनुष्य के मध्यम अवधिज्ञान के संस्थान भी अनेक
प्रस्तुत सूत्र में विभंगज्ञान को नाना संस्थान संस्थित कहा प्रकार के होते हैं, जैसे
गया है किन्तु अवधिज्ञान के संस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। १. हय संस्थान
शब्द विमर्श २.गज संस्थान
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों ३. पर्वत संस्थान।
इन्द्रियजन्य ज्ञान हैं। अभयदेव सूरि के अनुसार आभिनिबोधिक ज्ञान
१.ठाण ७/२। २. आ. नि. पृ. २४-२६॥ ३. वही, पृ. २६॥ ४.(क) आव. चू.पृ.५५-५६।
(ख) वि. भा. गा. ७०६-७११। ५. वही, १११ ६. आ. चू. पृ. ५६-५५-इयाणिं तिरियमणुयाणं जारि ओहिस्स संठाणं तं भणति, सो य तिरियमणुओहि हयगयादी संठाणसंठितो पुब्विं चेव भणितोत्ति..... तहा हयसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च हयसंठिओ भवति, गयसंठाणसंठियं खेनं पडुच्च गयसंठिनो भवति, एवमाई, पव्वयसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च पव्वयसंठिओ भवति, एवमादि।
७. नंदी सू.-१८ गाथा १| ८. ष, खं, पुस्तक १३ पृ. २९६ सू. ५७-खेत्तदो नाव अणेयसंठाणसंठिदा। ......... जहा कायाणमिदियाणं च पडिनियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्य ण होदि किन्तु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरीरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा होति। ९. वही, पुस्तक १३ पृ. २९७, सू. ५८-सिरिवच्छ कलससंख
सोत्थियणंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति। १०. वही, पुस्तक १३ पृ. २९८ सू. ५८। ११. आ. हा. वृ. सू. ६१-इह फड्डकानि अवधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा
गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभावफडकानीव फडकानि। १२. नंदी चू. सू. १३ पृष्ठ १५।
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