________________
श.८ : उ. २ : सू. १०१-१०३
३८
भगवई
१०१. से किं तं ओग्गहे?
ओग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। एवं जहेव आभिणि-बोहियनाणं तहेव, नवरं- एगवियवज्ज जाव नोइंदिय-धारणा। सेत्तं धारणा, सेत्तं मइअण्णाणे।।
अथ कि सः अवग्रहः? अवग्रहः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- अर्थावग्रहश्च व्यञ्जनावग्रहश्च। एवं यथैव आभिनिबोधिकज्ञानं तथैव, नवरंएकार्थिकवर्ज यावत् नोइन्यिद्रयधारणा। सा एषा धारणा। तदेतत् मतिअज्ञानम्।
१०१. वह अवग्रह क्या है?
अवग्रह दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-- अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। इस प्रकार जैसे आभिनिबोधिक ज्ञान की वक्तव्यता है वैसे ही मतिअज्ञान की बातव्यता। इतना विशेष है कि इसमें एकार्थिक नामों का उल्ल्लेख करणीय नहीं है यावत् यह पाठ नोइंद्रिय धारणा तक वक्तव्य है। वह है धारणा। वह है मति अज्ञान।
१०२. से किं तं सुयअण्णाणे?
अथ किं तत् श्रुत-अज्ञानम्? सुयअण्णाणे-जं इमं अण्णाणिएहिं श्रुत-अज्ञानं यत् इदं अज्ञानिभिः मिथ्यामिच्छादिट्ठिएहिं सच्छंदबुद्धि-मइ. दृष्टिकैः स्वच्छन्दबुद्धि-मतिविकल्पितम्, विग्गपियं, तं जहा-भारहं, रामायणं जहा तद्यथा-भारतं, रामायणं यथा नन्द्यां यावत् नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा। सेत्तं चत्वारः वेदाः साङ्गोपाङ्गाः। तदेतत् श्रुतसुयअण्णाणे॥
अज्ञानम्।
१०२. वह श्रुतअज्ञान क्या है?
श्रुतअज्ञान-जो यह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, स्वच्छन्द बुद्धि और मति द्वारा विरचित है जैसे-भारत, रामायण। जैसे नंदी में यावत् अंग, उपांग सहित चार वेद। वह श्रुतअज्ञान है।
१०३. से किं तं विभंगनाणे? अथ किं तत् विभङ्गज्ञानम्?
१०३. वह विभंगज्ञान क्या है? विभंगनाणे अणेगविहे पण्णते, तं विभङ्गज्ञानम् अनेकविध प्रज्ञप्तं तद्यथा- विभंगज्ञान अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त है, जहा--गामसंठिए, नगरसंठिए, जाव ग्रामसंस्थितं, नगरसंस्थितं यावत् सन्नि. जैसे-ग्रामसंस्थित (गांव के आकार सण्णिवेससंठिए, दीवसंठिए,समुद्द- वेशसंस्थितं, द्वीपसंस्थितं, समुद्रसंस्थितं, वाला) नगर संस्थित यावत् सन्निवेशसंठिए, वाससंठिए, वासहरसंठिए, वर्षसंस्थितं, वर्षधरसंस्थितं, पर्वतसंस्थितं, संस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभ-संठिए, रुक्षसंस्थितं, स्तूपसंस्थितं, हयसंस्थितं, वर्षसंस्थित (भरत क्षेत्र आदि के आकार हयसंठिए, गयसंठिए, नरसंठिए, किन्नर- गजसंस्थितं, नरसंस्थितं, किन्नरसंस्थितं, वाला), वर्षधरसंस्थित (हिमवत आदि संठिए, किंपुरिससंठिए, महोरगसंठिए, किम्पुरुषसंस्थितं, महोरगसंस्थितं.गन्धर्व- वर्षधर पर्वत के आकार वाला), गंधव्य-संठिए, उसभसंठिए, पसुसंठिए, संस्थितं, ऋषभसंस्थितं, पशुसंस्थितं, पर्वतसंस्थित, वृक्षसंस्थित, स्तूपसंस्थित, पसयसंठिए, विहगसंठिए, वानर. 'पसय' संस्थितं, विहगसंस्थितं, वानर- हयसंस्थित (अश्व के आकार वाला), संठिए-नाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते॥ संस्थितं-नानासंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम्। गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित
किंपुरुष-संस्थित, महोरगसंस्थित, गंधर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित, पशुसंस्थित, मृगाकार-संस्थित, विहगसंस्थित (पक्षी के आकार वाला), वानरसंस्थित-नाना
संस्थानों के आकार वाला प्रज्ञप्त है।
भाष्य १. सूत्र ९७-१०३
नहीं है। उसके संस्थान भी निर्दिष्ट नहीं हैं। मति अज्ञान के अवग्रह भगवती सूत्रगत ज्ञान की परम्परा राजप्रश्नीय और नंदीगत आदि का भी उल्लेख नहीं है। ज्ञान की परम्परा में समानता और असमानता-दोनों के तत्त्व विद्यमान राजप्रश्नीय में केवल ज्ञान के भेद बतलाए गए हैं। उसमें अज्ञान हैं। समानता के जितने तत्त्व हैं, उनका यहां संक्षेपीकरण किया गया की चर्चा नहीं है। प्रतीत होता है-विभंगज्ञान का उल्लेख सर्वप्रथम
और उनके विस्तार के लिए राजप्रश्नीय और नंदीसूत्र देखने का निर्देश भगवती में हुआ है। इसके पश्चात् अनुयोगद्वार में अज्ञान के तीन दिया गया।
प्रकार उपलब्ध हैं। उमास्वाति ने अवधिज्ञान के विपर्यय का उल्लेख असमानता के तत्त्व ये हैं-नंदी ज्ञान मीमांसा का मुख्य आगम किया है। है। उसमें अज्ञान के दो ही प्रकार किए गए हैं, विभंगज्ञान का उल्लेख स्थानांग में विभंगज्ञान के सात भेद विस्तार के साथ निरूपित १. अणु. २८५-ख ओवसमिया मई अन्नाणलन्द्री ख ओवसममिया २.त. सू. भा. वृ.१/३२-मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। सुय अन्नाणलद्धी खओवसमिया विभंगनाणलन्द्री।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org