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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. ९७-१००
३. मति, श्रुत और मनःपर्यव ज्ञान युक्त।
स्थानांग सूत्र की वृत्ति में सर्वभाव का अर्थ सर्व प्रकार किया है। ४. मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव ज्ञान युक्त।
दस स्थानों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अवधि और मनःपर्यव-ये दो अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। मति और आकाशास्तिकाय और शरीरमुक्त जीव-ये चार अमूर्न हैं। अमूर्त श्रुत इन्द्रियजन्य ज्ञान हैं। अभयदेव सूरि ने लिखा है-यहां इन्द्रिय तत्त्व को छद्मस्थ नहीं जान सकता, भले फिर वह सामान्य ज्ञानी हो ज्ञान वाला छद्मस्थ विवक्षित है। उनका तर्क है-अतिशय अवधिज्ञानी अथवा अतिशय ज्ञानी। परमाणु-पुद्गल, शब्द, गंध और वाय-ये परमाणु को जानता है और सूत्र का निर्देश है कि छास्थ परमाणु को मूर्त हैं। परमाणु पुगल सूक्ष्म-सूक्ष्म है, उसे अतिशय अवधिज्ञानी नहीं जानता, इससे फलित होता है कि यहां मतिश्रुतज्ञानयुक्त छद्मस्थ , जान सकता है। चाक्षुष प्रत्यक्ष से वह नहीं जाना जा सकता। शब्द ही विवक्षित है।
और गंध सूक्ष्म-स्थूल हैं। ये भी चाक्षुष प्रत्यक्ष से नहीं जाने जा अतिशय ज्ञानी छद्मस्थ परमाणु को जान सकता है, किन्तु सकते। वायु भी चक्षु का विषय नहीं है। प्रतीत होता है-चाक्षुष उसके सब पर्यायों को नहीं जान सकता इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्यक्ष की अपेक्षा से इन्हें छद्मस्थ द्वारा अज्ञेय बतलाया गया है। सर्वभाव का अर्थ सर्वपर्याय नहीं है। अभयदेव सूरि ने भगवती की जिन होगा और सब दुःखों का अंत करेगा, यह भविष्य का ज्ञान वृत्ति में इसका अर्थ साक्षात्कार-इन्द्रिय प्रत्यक्ष किया है। उन्होंने निरतिशय ज्ञानी के लिए संभव नहीं है। नाण-पदं ज्ञान-पदम्
ज्ञान-पद . ९७. कतिविहे णं भंते! नाणे पण्णत्ते! कतिविध भदन्त ! ज्ञानं प्रज्ञसम् ?
९७. 'भन्ते! ज्ञान कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियनाणे,सुयनाणे,
ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे,केवल- नाणे॥
गौतम ! पञ्चविधं ज्ञानं प्रजप्सम, तद्यथा-- आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्. अवधिज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानम्।
गौतम ! ज्ञान पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-आभिनिबोधिकज्ञान. श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान।
९८. से किं तं आभिणिबोहियनाणे? अथ किं तत् आभिनिबोधकज्ञानम् ?
अभिणिबोहियनाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं आभिनिबोधिकज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, जहा-ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा। तद्यथा-अवग्रहः, ईहा, अवाय, धारणा। एवं जहा 'रायप्पसेणइज्जे नाणाणं भेदो एवं यथा 'राजप्रश्नीये ज्ञानानां भेदः तथैव तहेव इह भाणियव्वो जाव सेत्तं इह भणितव्यः यावत तदेतत् केवलज्ञानम्। केवलनाणे॥
९८. वह आभिनिबोधिक ज्ञान क्या है?
आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा। इस प्रकार जैसे राजप्रश्नीय में ज्ञानों के भेद की वक्तव्यता है वैसे ही यहां वक्तव्य है यावत् वह केवलज्ञान है।
९९. अण्णाणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते?
अज्ञानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम ?
९९. भन्ते! अज्ञान कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेमतिअज्ञान. श्रुतअज्ञान. विभंगज्ञान।
गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे, विभंग- नाणे॥
गौतम! त्रिविधं प्रज्ञाप्तम्, तद्यथा-मति- अज्ञानं. श्रुत-अज्ञानं, विभंगज्ञानम्।
१००.से किं तं मइअण्णाणे? मइअण्णाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा।।
अथ किं तत् मति-अज्ञानम् ? मति-अज्ञानं चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथाअवग्रहः, ईहा. अवाय, धारणा।
१००. वह मतिअज्ञान क्या है ?
मतिअज्ञान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा।।
१. (क) भ. वृ. ८/९६-छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते. अन्यथाऽमूर्नत्वेन धर्मास्तिकायादीनजानन्नपि परमाण्वादि जानात्येवासी, मूर्त्तत्वात्तस्य, समस्तमूर्त्तविषयत्वाच्चावधिविशेषस्य। (ख) स्था., व. प. ४८०-नवरं छद्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योन्यथाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि जानात्येव। २. भ. बृ. ८/०६-अथ सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च नत् कथञ्चिज्जानन्नप्यनन्त
पर्यायतया न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति संख्यानियमो व्यर्थः स्यात् घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञानुमशक्यत्वात.
सर्वभावेन च साक्षात्कारेण चक्षुप्रत्येक्षणेति हृदयम। ३. स्था., वृ. प. ४८०-सव्वभावेणं ति सर्वप्रकारण स्पर्शरसगंधरूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः।
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