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________________ श.८ : उ. २ : सू. ९५,९६ ३६ भगवई वेमाणियदेवकम्मासीविसे। वैमानिकदेवकर्माशीविषः। जइ सोहम्मकप्पोवावेमाणियदेव- यदि सौधर्मकल्पोपकवैमानिकदेवकर्माकम्मासीविसे किं पज्जत्तासोहम्म- शीविषः किं पर्याप्सकसौधर्मकल्पोपककप्पोवा-वेमाणियदेवकम्मासीविसे। वैमानिकदेवकर्माशीविषः? अपर्याप्तकअपज्जत्तासोहम्मकप्पोवा-वेमाणिय- सौधर्मवैमानिकदेवकर्माशीविषः? देवकम्मासीविसे? गोयमा! नो पज्जत्तासोहम्म-कप्पोवा- गौतम! नो पर्याप्तकसौधर्मकल्पोपकवेमाणियदेवकम्मासीविसे, अपज्जत्ता- वैमानिकदेवकर्माशीविषः, अपर्याप्तकसोहम्मकप्पोवा - वेमाणियदेव-कम्मा- सौधर्मकल्पोपक-वैमानिकदेवकर्मशीविष: सीविसे, एवं जाव नो पज्जत्तासहस्सार- एवं यावत् नो पर्याप्तक सहस्रारकल्पोपककप्पोवा-वेमाणियदेव-कम्मासीविसे, वैमानिकदेवकर्माशीविषः, अपर्याप्तकअपज्जत्ता-सहस्सारकप्पोवावेमाणिय- सहस्रारकल्पोपकवैमानिकदेव-कर्माशीदेवकम्मासीविसे॥ विषः। वैमानिक देव कर्मआशीविष नहीं है। यदि सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है तो क्या पर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्म आऑविष है? अथवा अपर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिक-देव कर्मआशीविष है? गौतम! पर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष नहीं है, अपर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष नहीं है, अपर्याप्त सहस्रार कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है। छउमत्थ-केवलि-पदं छद्मस्थ-केवलि-पदम्। छद्मस्थ केवली-पद ९६. दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न दश स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेण न ९६. 'दस पदार्थो को छद्मस्थ सम्पूर्ण रूप से जाणइ न पासइ, तं जहा- जानाति न पश्यति, तद्यथा-१. न जानता है, न देखता है, जैसे१. धम्मत्थिकार्य २. अधम्मत्थिकायं धर्मास्तिकायम् २. अधर्मास्तिकायम् ३. १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आगासत्थिकायं ४. जीवं असरीर- ___ आकाशास्तिकायम ४. जीवम् अशरीर- ३. आकाशास्तिकाय ४. शरीरमुक्त जीव पडिबद्धं ५. परमाणुपोग्गलं ६. सई प्रतिबद्धं ५. परमाणुपुद्गलं ६. शब्दं ७. ५. परमाणु पुद्गल ६. शब्द ७. गंध ७. गंधं ८. वातं ९. अयं जिणे भविस्सइ बन्धं ८. वातम् ९. अयं जिनो भविष्यति वा ८. वायु ९. यह जिन होगा या नहीं वा न वा भविस्सइ १०. अयं सव्व- न वा भविष्यति १०. अयं सर्व- १०. यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या दुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा दुःखानामन्तं करिष्यति वा न वा करिष्यति। नहीं। करेस्सइ। एयाणि चेव उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अर्हत, जिन, जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ, जिनः केवली सर्वभावेण जानाति पश्यति, केवली इनको सम्पूर्ण रूप से जानते देखते तं जहा-धम्मत्थि-कायं, अधम्मत्थि- तद्यथा-धर्मास्तिकायम्, अधर्मास्ति- हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कायं, आगास-त्थिकायं, जीवं असरीर- कायम, आकाशा-स्तिकायं, जीवम् आकाशास्तिकाय, शरीरमुक्त जीव, पडिबढ़, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध, अशरीरप्रतिबद्धं, परमाणु पुद्गलं, शब्द, परमाणु पुद्गल, शब्द, गन्ध, वायु, यह जिन वातं, अयं जिणे भविस्सइ वा न वा. गन्धं, वातम्, अयं जिनः भविष्यति वा न वा होगा या नहीं, यह सभी दुःखों का अन्त भविस्सइ, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं भविष्यति, अयं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति करेगा या नहीं। करेस्सइ वा न वा करेस्सइ। वा न वा करिष्यति। भाष्य १. सूत्र ९६ जिसका ज्ञानावरण क्षीण नहीं है, वह छद्मस्थ है। जिसका ज्ञानावरण छद्मस्थ और केवली-ये दो शब्द जैन आगमों में सुप्रसिद्ध हैं। क्षीण हो चुका, वह केवली है। ज्ञान के आधार पर छद्मस्थ के चार इनके विभाग का मूल हेतु ज्ञान का विकास है। ज्ञानावरण क्षीण नहीं . विकल्प बनते हैं - होता, तब तक चार ज्ञान उपलब्ध होते हैं-मति, श्रुत, अवधि और १. मति, श्रुत ज्ञान युक्त। प्रति मनःपर्यव। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। २. मति. श्रत और अवधि ज्ञान यक्त। 2.भ.८/१०४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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