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श.८ : उ. २: सू. १०८-११०
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भगवई
१०८. बेइंदियाण पुच्छा। गोयमा! वि अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुण्णाणी, तं जहाआभिणिबोहियनाणी सुयनाणी या जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। एवं तेइंदिय-चउरिदिया वि॥
द्वीन्द्रियाणाम् पृच्छा। गौतम! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि। ये ज्ञानिनः ते नियमात् द्विज्ञानिनः, तद्यथाआभिनिबोधिकज्ञानिनः. श्रुतज्ञानिनश्च। ये अज्ञानिनः ते नियमात् द्वि-अज्ञानिनः तद्यथा-मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिनश्च। एवं त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाः अपि।
१०८. द्वीन्द्रिय की पृच्छा।
गौतम! ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं वे नियमतः दो ज्ञान वाले होते हैं, जैसे-आभिनिबोधिकज्ञान
और श्रुतज्ञान वाले। जो अज्ञानी होते हैं वे नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं, जैसेमतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाल। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता।
१०९. पंचेन्द्रिय तिर्यगयोनिक की पृच्छा।
१०९. पंचिंदियतिरिक्ख - जोणियाणं पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकानां पृच्छा। पुच्छा। गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये जे नाणी ते अत्थेगतिया दुण्णाणी, ज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्विज्ञानिनः, अत्थेगतिया तिण्णाणी।
अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः। ये अज्ञानिनः ते जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, अस्त्येकके द्वि-अज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिअत्थेगतिया ति-अण्णाणी। एवं तिणि अज्ञानिनः। एवं त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि नाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। अज्ञानानि भजनया। मनुष्याः यथा जीवाः, मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच नाणाणि, तथैव पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। वाणमंतरा भजनया। वानमन्तराः यथा नैरयिकाः। जहा नेरइया। जोइसियवेमाणियाणं ज्योतिष्क वैमानिकानां त्रीणि ज्ञानानि, तिण्णि नाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि त्रीणि अज्ञानानि नियमात्। नियमा॥
गौतम ! ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं उनमें कुछ दो ज्ञान वाले और कुछ तीन ज्ञान वाले होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं उनमें कुछ दो अज्ञान वाले और कुछ तीन अज्ञान वाले होते हैं। इस प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य हैं। जीव की भांति उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। वानमन्तर नैरयिक की भांति वक्तव्य है। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नियमतः तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं-न्यून और अधिक नहीं होते।
११०. सिद्धाणं भंते! पुच्छा। सिद्धानां भदन्त ! पृच्छा।
११०. भन्ते! सिन्द्रों की पृच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी; नियमा गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः, नियमात गौतम ! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं है। नियमतः एगनाणी-केवलनाणी॥ एकज्ञानिनः-केवलज्ञानिनः।
एक ज्ञानी-केवलज्ञानी है।
भाष्य १. सूत्र १०७-११०
बतलाया है। कर्मग्रन्थ का मत है-सास्वादन सम्यक्त्व में पांच सम्यक्त्व छूट रहा है और मिथ्यात्व अभी आया नहीं है-इस अपर्याप्त है-बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और अंतराल अवस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होता है। सम्यक्त्व से गिरने असंही पंचेन्द्रिय तथा दो संज्ञी अपर्याप्त और पर्याप्त-कुल सान वाला जीव विकलेन्द्रिय में उत्पन्न होता है. उस समय अपर्याप्त अवस्था जीवस्थान है। में उसमें सास्वादन सम्यग्दर्शन लब्ध होता है इस अपेक्षा से वह द्वि. प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय में ज्ञान का निषेध किया गया है और ज्ञानी है। जयाचार्य ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है।'
कर्मग्रन्थ में एकेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व स्वीकार किया गया इस प्रसंग में आचार्यवर ने कर्मग्रन्थ के द्वारा सम्मत एकेन्द्रिय है। इसका फलित है-वह दो ज्ञान वाला भी है। यह आगम से भिन्न में सास्वादन सम्यग्दर्शन का उल्लेख कर उसे आगम से असम्मत मत है। १. भ. ७. ८/१०८-द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यगदर्शन
एवं जाव वणस्सइ कहिये, ज्ञानी नहिं ने अज्ञानी। भावनाउपासकावस्थायां भवन्तीत्यत उच्यते।
कर्म ग्रंथ दूजो गुणठाणो, आख्यो तेह विरुध जानी॥ २. भ. जो.२.१३५:१०
४. कर्मग्रंथ भाग ४ गुणस्थान अधिकार गाथा ४५सम्यक्न बमतो जाण, विकलेन्द्री में ऊपजै।
सव्व जियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज सन्निदुर्ग। सास्वादन गणठाण अपर्याप्त विषे हवै।।
समे सन्नी दुविहो, ऐसे सु संनिपज्जत्तो।। ३. वही.२.१३५.१६
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