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________________ भगवई श.८ : उ. २: सू.१११-११४ अंतरालगतिं पडुच्च१११. निरयगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिण्णि नाणाई नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए। अन्तरालगतिं प्रतीत्यनिरयकगतिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि! त्रीणि ज्ञानानि नियमात. त्रीणि अज्ञानानि भजनया। अन्तरालगति की अपेक्षा से १११. भन्ते! नरक की अन्तराल गति में विद्यमान जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, तीन अज्ञान की भजना है। ११२. तिरियगतिया णं भंते! जीवा किं तिर्यग्गतिकाः भदन्त ! जीवा किं ज्ञानिनः? ११२. भन्ते ! तिर्यंच की अन्तराल गति में नाणी। अण्णाणी? अज्ञानिनः? विद्यमान जीव क्या जाना है? अज्ञानी है? गोयमा! दो नाणा, दो अण्णाणा गौतम! द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने नियमात्। गौतम ! नियमतः दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान नियमा॥ होते हैं। ११३. मणुस्सगतिया णं भंते! जीवा किं मनुष्यगतिकाः भदन्त जीवाः किं ११३. मनुष्य की अंतराल गति में विद्यमान नाणी? अण्णाणी? ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? जीव क्या ज्ञानी है? अज्ञानी हैं? गोयमा! तिण्णि नाणाई भयणाए, दो गौतम! त्रीणि ज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने गौतम! तीन ज्ञान की भजना है, दो अज्ञान अण्णाणाई नियमा। देवगतिया जहा नियमात् ! देवगतिकाः यथा निरयगतिकाः। नियमतः होते हैं। देव की अंतराल गति में निरयगतिया।। विद्यमान जीवों की नरक की अंतराल गति में विद्यमान जीवों की भांति वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र १११-११३ जाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में निरयगतिक, तिर्यक्गतिक और मनुष्य- तिर्यक्रगतिक में दो ज्ञान का नियम इस अपेक्षा से है कि तिर्यक गतिक का प्रयोग सापेक्ष है। निरयगति में उत्पन्न होने वाला जीव गति में उत्पन्न होने वाला सम्यक्दृष्टि जीव अवधि ज्ञान को साथ लेकर वर्तमान में अंतराल गति में है, उसे निरयगतिक कहा गया है। इसी तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं हो सकता। दो अज्ञान का नियम इस अपेक्षा प्रकार तिर्यंच और मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले जीवों को से है कि तिर्यक्रगति में उत्पन्न होने वाला मिथ्यादृष्टि जीव भी अंतरालगति की अपेक्षा क्रमशः तिर्यक्गतिक और मनुष्यगतिक कहा विभंगज्ञान को साथ लेकर तिर्यंच गति में उत्पन्न नहीं हो सकता। गया है। नैरयिक में तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, यह इस अपेक्षा से मनुष्यगतिक में तीन ज्ञान की भजना इस अपेक्षा से है कि कुछ कहा गया है कि सम्यगदृष्टि नैरयिकों के अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक सम्यकदृष्टि जीव अवधिज्ञान सहित मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं। यह होता है। भव का प्रारम्भ अन्तराल गति के पहले समय से होता है, अभिमत है कि तीर्थंकर अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। कुछ अतः भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान अन्तराल गति में ही हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञान रहित उत्पन्न होते हैं इसलिए तीन ज्ञान तीन अज्ञान की भजना की अपेक्षा यह है-असंज्ञी जीव नरक में और दो ज्ञान-ये दो विकल्प बन जाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव विभंगज्ञान जाते हैं। उनके अपर्याप्तक अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता। संज्ञी के साथ मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते इसलिए उनमें नियमतः दो मिथ्यादृष्टि जीव नरक में जाते हैं, उनके भवप्रत्ययिक विभंगज्ञान अज्ञान होते हैं। अंतराल गति में हो जाता है। इस अपेक्षा से अज्ञान के दो नियम बन देवगतिक की वक्तव्यता निरयगतिक के समान है। ११४. सिद्धगतिया णं भंते! जीवा किं सिद्धगतिका : भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? ११४. 'भन्ते! सिद्ध की अंतराल गति में नाणी? विद्यमान जीव क्या ज्ञानी है? जहा सिद्धा॥ यथा सिद्धाः। सिद्धों (सूत्र ८/११०) की भांति वक्तव्यता। भाष्य १. सूत्र ११४ दोनों में कोई अन्तर नहीं है फिर भी गति के प्रकरण में उनका उल्लेख सिद्ध में एक केवलज्ञान होता है। सिद्धिगतिक में भी एक किया गया है। केवलज्ञान होता है। सिद्ध और सिद्धिगतिक का समय एक ही है। इन १. भ. वृ.८.१११॥ ३. वही, ८/११३। २. वही, ८.११२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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