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श. ११ : उ. ११ : सू. १२९-१३३
नेरइयतिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवाणं आउयाइं मविज्जंति ॥
१३०. नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई नैरयिकानां कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? पण्णत्ता ?
एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहण्णमणुक्कोसेणं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ॥
तेत्तीसं
१३१. अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं एति वा
१ सूत्र ११९-१३०
काल के चार प्रकार का निर्देश स्थानांग में मिलता है। वहां मूल पाठ में उनका विस्तार नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में इनका स्पष्ट अर्थ सूत्र में उपलब्ध है।
अवचएति वा?
हंता अत्थि ॥
१३२. से केणट्टेण भंते! एवं वुच्चदअत्थि णं एएसिं पनिओवमसागरोव माणं खपति वा अवचएति वा ? एवं खलु सुदंसणा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था - वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणेaणओ । तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था - वण्णओ । तस्स णं बलस्स रण्णो पभावई नामं देवी होत्था - सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोग पच्चणुभवमाणी विहरइ ॥
४२०
पमाभ्यां नैरयिक-तियग्योनिक मनुष्यदेवानाम् आयूंषि मापयन्ति ।
१३३. तए णं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सचित्त कम्मे, बाहिरओ दूमिय- घट्ट मट्ठे विचित्तउल्लोगचिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे बहुसम - सुविभत्तदेसभाए पंचवण्णसरस- सुरभि - मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागरु-पवरकुंदुरुक्क तुरुक्क-धूवमघमघेत-गंधुद्ध्याभिरामे सुगंध - वरगंधिए गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि
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एवं स्थितिपदं निरवशेषं भणितव्यं यावत् अजघन्यमनुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
भाष्य
४१३-४३३।
समय आदि का विस्तृत अर्थ जानने के लिए द्रष्टव्य है, अनुयोगद्वार
टिप्पण |
अस्ति भदन्त ! एतयोः पल्योपम-सागरोपमयोः क्षयः इति वा अपचयः इति वा ? हन्त अस्ति ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्ति एतयोः पल्योपम-सागरोपमयोः क्षयः इति वा अपचयः इति वा?
पोरिसी के लिए द्रष्टव्य उतरज्झयणाणि २६ / १२-१६ का
एवं खलु सुदर्शन ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरं नाम नगरमासीत्वर्णकः । सहस्राम्रवनम् उद्यानम्-वर्णकः । तत्र हस्तिनापुरे नगरे बलः नाम राजा आसीत्-वर्णकः । तस्य बलस्य राज्ञः प्रभावती नाम देवी आसीत् सुकुमाल - पाणिपादा वर्णकः यावत् पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभवती विहरति ।
भगवई
नैरयिक, तिर्यक्रयोनिक मनुष्य और देवों के आयुष्य का मापन होता है।
ततः सा प्रभावती देवी अन्यदा कदापि तस्मिन् तादृशके वासगृहे आभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि, बाह्यतः धवलित घृष्ट--मृष्टे विचित्रोल्लोक - चिल्लियतले मणिरत्नप्रणशितान्धकारे बहुसमसुविभक्तदेशभागे पंचवर्ण- सरस-सुरभि मुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते काला-गुरु- प्रवरकुन्दुरुकतुरुष्क-धूप-मघमघाय-मान-गन्धोद्धुताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धवर्त्तिभूते, तस्मिन् तादृशके शयनीये सालिंगनवर्तिके
१३०. भंते! नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है ?
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इस प्रकार स्थिति पद (प्रज्ञापना-पद ४) वक्तव्य है यावत् अजघन्य- अनुत्कृष्टउत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है।
१३१. भंते! इन पल्योपम सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ?
हां, होता है।
१३२. भंते! यह किस अपेक्षा कहा जा रहा है - इन पल्योपम - सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ?
सुदर्शन! उस काल उस समय में हस्तिनापुर नाम नगर था-वर्णक । सहस्राम्रवन उद्यान - वर्णक । उस हस्तिनापुर नगर में बल नाम का राजा था- वर्णक । उस बल राजा के प्रभावती नाम की देवी थी - सुकुमाल हाथ पैर वाली वर्णक यावत् मनुष्य संबंधी पंचविध कामभोगों का प्रत्यनुभव करती हुई विहरण कर रही थी ।
१३३. एक दिन प्रभावती देवी उस अनुपम वासगृह, जो भीतर से चित्र कर्म से युक्त और बाहर से धवलित था, कोमल पाषाण से घिसा होने के कारण चिकना था। उसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से दीप्तिमान था । मणि और रत्न की प्रभा से अंधकार प्रणष्ट हो चुका था । उसका देश भाग बहुत सम और सुविभक्त था। पांच वर्ण के सरस और सुरभित मुक्त पुष्प, पुञ्ज
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