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________________ भगवई ४२१ श. ११ : उ. ११ : सू. १३३ सयणिज्जंसि-सालिंगणवट्टिए उभओ उभयत: विब्बोयणे द्वयतः उन्नते मध्ये नत- के उपचार से कलित, कृष्ण अगर, प्रवर विब्बोयणे दुहओ उण्णए मज्झे गम्भीरे गंगापुलिनवालुकावदालशालिशते कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से णयगंभीरे गंगा-पुलिणवालुय-उद्दाल- ओयविय-क्षौमिकदुकूलपट्ट-प्रतिच्छदने उटती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सालिसए ओय-विय-खोमियदुकुल्लपट्ट सुविरचितरजस्त्राणे रक्ताशुंकसंवृते सुरम्ये सुरभि वाले गंध चूर्णो से सुगंधित गंधपडिच्छयणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तं- आजिनक - ख्य - बूर - नवनीत - तूलस्पर्श वर्तिका के समान उस प्रासाद में एक सुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर- सुगन्धवरकुसुम-चूर्ण-शयनोपचारकलिते विशिष्ट शयनीय था-उस पर शरीरनवणीय-तूलफासे सुगंधवरकुसुम- अर्द्धरात्रिकालसमये सुसजागरा निद्राय- प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, चुण्ण-सयणोवयारकलिए अद्धरत्त- माणा-निद्रायमाणा इदमेतद्रूपं 'ओरालं' शिर और पांवों की ओर शरीर-प्रमाण काल-समयंसि सुत्तजागरा ओहीर. कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यं सश्रीकं उपधान रखे हुए थे इसलिए वह दोनों माणी-ओहीरमाणी अयमेयारूवं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा। ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत ओरालं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगल्लं और गंभीर था। गंगा तट की बालुका की सस्सिरीयं महासुविणं पासित्ता णं भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था। पडिबुद्धा। वह परिकर्मित क्षौम दुकूल पट्ट से ढका हार-यय-खीरसागर - ससंक-किरण- हार - रजत - क्षीरसागर - शशांककिरण हुआ था। उसका रजस्त्राण (चादरा) दगरय - रययमहासेल - पंडर-तरोरुर- दकरजस्-रजतमहाशैल-पाण्डुरतरोरु- सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी मणिज्ज-पेच्छणिज्जं थिर-लट्ठ-पउट्ठ- रमणीय-प्रेक्षणीयं स्थिर-लष्ट-प्रकोष्ठ-वृत्त- से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ-तिक्ख. पीवर · सुश्लिष्ट . विशिष्ट - तीक्ष्ण- कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के दाढाविडंबियमुहं परिकम्मियजच्च- दंष्ट्राविडम्बित-मुखं परिकर्मितजात्यकमल- समान (मृदु) था। प्रवर सुगंधित कुसुम कमलकोमल . माझ्यसोभंतलठ्ठओटुं कोमल-मात्रिक-शोभमान लष्टौष्टं रक्तो- चूर्ण के शयन-उपचार से कलित था। उस रत्तुप्पलपत्त - मउय-सुकुमालतालुजीहं त्पलपत्रमृदुक-सुकुमालतालु-जिह्व मूषा- शयनीय पर अर्द्ध रात्रि के समय सुप्तमूसागय . पवरकणगतावियआवत्ता. गतप्रवरकनकतापितावयिमान-वृत्त- जाग्रत (अर्धनिद्रा) अवस्था में बार बार यंतवट्ट . तडिविमलसरिसनयणं तडिविमलसदृशनयनं विशालपीवरोरु झपकी लेती हुई प्रभावती देवी इस प्रकार विसाल-पीवरोरुं पडिपुण्णविपुलखधं प्रतिपूर्णविपुलस्कन्धं मृदुविशदसूक्ष्म- का उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल मिङ- विसयसुहमलक्खण · पसत्थ- लक्षणप्रशस्त - विच्छिन्न - केशरसटो. और श्री संपन्न महास्वप्न देखकर जागृत विच्छिन्नकेसरसडोवसोभियं ऊसिय- पशोभितम् उच्छित-सुनिर्मित-सुजात- हो गई। सुनिम्मिय-सुजाय - अप्फोडियलं-गूलं आस्फोटित-लांगूलं सौम्यं सौम्याकारं वह हार, रजत, क्षीर-सागर, चंद्र-किरण, सोमं सोमाकारं लीला-यंतं जंभावंत, लीलायमानं ज़म्भमाणं, नभतलात् जल-कण, रजत महाशैल (वैताट्य) के नहयलाओ ओवयमाणं, निययवयण- अवपतन्तं. निजक-वदनमतिपतन्तं सिंह समान अतिशुक्ल, रमणीय और दर्शनीय मतिवयंतं सीहं सुविणे पासिता णं स्वप्ने दृष्टा प्रतिबुद्धा सती हृष्टतुष्टचित्ता। था। उसका प्रकोष्ठ अप्रकंप और मनोज्ञ पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिया आनन्दिता नन्दिता प्रीतिमना परम- था। वह गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट णंदिया पीइ-मणा परमसोमणस्सिया । सौमनस्यिता हर्षवशविसर्पद-मानहृदया और तीक्ष्ण दाढा से मुक्त मुंह को खोले हरिसव-सविसप्पमाणहियया धारा- धाराहतकदम्बकं इव समुच्छयित-रोमकूपा हुए था। उसके ओष्ठ परिकर्मित, हयक-लंबगं पिव समूसवियरोमकूवा तं तं स्वप्नम् अवगृह्णाति, अवगृह्य शयनीयात् जातिवान्, कमल के समान कोमल, सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता अभ्युत्तिष्ठति. अभ्युत्थाय अत्वरिता- प्रमाण-युक्त और अत्यंत शोभनीय थे। सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता । चपलासम्भ्रान्तया अविलम्बितया राजहंस- उसकी जिह्वा और तालु रक्त-कमल-पत्र अतुरियमचवलमसंभंताए अवि- सदृश्या गत्या यत्रैव बलस्य राज्ञः शयनीयं के समान मृदु और सुकुमाल थे। उसके लंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य बलं राजानं नयन मूसा (स्वर्ण आदि को गलाने का बलस्स रण्णो सयणिज्जे तेणेव । ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिः पात्र) में रहे हुए, अग्नि में तपाये हुए. उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलं रायं मनोज्ञाभिः ‘मणामाहिं' मनोरमाभिः आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के सदृश रंग ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं 'ओरालाहिं' कल्याणाभिः शिवाभिः वाले और विद्युत् के समान विमल थे। मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं मांगल्याभिः सश्रीकाभिः मित-मधुर- उसकी जंघा विशाल और पुष्ट थी। सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीय- मंजुलाभिः गीर्भिः संलपती-संलपती उसके स्कंध प्रतिपूर्ण और विपुल थे। वह याहिं मिय-महर-मंजुलाहिं गिराहिं प्रतिबोधयति, प्रतिबोध्य बलेन राज्ञा मृदु, विशद, सूक्ष्म, विस्तीर्ण और प्रशस्त संलवमाणी-संलवमाणी पडिबोहेइ, अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नभित्तिचित्रे लक्षण युक्त अयाल की सटा से सुशोभित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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