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________________ श. ११ : उ. ११ : सू. १३३,१३४ पडिबोहेत्ता बलेणं रण्णा अब्भणु-ण्णाया समाणी नाणामणिरयण भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसी यति, निसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव मियमहुर- मंजुलाहिं गिराहिं संलव-माणीसंलवमाणी एवं वयासी एवं खलु अहं देवाप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए तं चेव जाव नियगवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तण्णं देवाप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ? १३४. तए णं से बले राया पभावईए देवीए अंतियं एयम सोच्चा निसम्म चित्तमादिए दिए पीइमाणे परमसोमणस्सिए हरिसवस - विसप्पमाण हिय धाराहयनीव - सुरभि - कुसुमचंचुमालइयतणुए ऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्ह, ओगिण्हित्ता ईह पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभा - विएणं मइपुव्वणं बुद्धिविणाणेणं तस्स Jain Education International ४२२ भद्रासने निषीदति निषद्य आश्वस्ता विश्वस्ता सुखासनवरगता बलं राजानं ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः यावत् मितमधुर-मंजुलाभिः गीर्भिः संलपती-संलपती एवमवादीत् एवं खलु अहं देवानुप्रिय ! अद्य तस्मिन् तादृशे शयनीये सालिंगनवर्तिके तं चैव यावत् निजकवदनमतिपतन्तं सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा तत् देवानुप्रिय ! एतस्य 'ओरालस्स' यावत् महास्वप्नस्य कः मन्ये कल्याणं फलवृत्तिविशेषः भविष्यति । ततः सः बलः राजा प्रभावत्याः देव्याः अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्मानहृदयः धारा हतनीपसुरभिकुसुम- चंचुमालइयतनुकः उच्छ्रितरोमकूपः तं स्वप्नम् अवगृह्णाति, अवगृह्य ईहां प्रविशति, प्रविश्य आत्मनः स्वाभाविकेन मतिपूर्वकेन बुद्धिविज्ञानेन तस्य स्वप्नस्यार्थावग्रहणं For Private & Personal Use Only भगवई था। वह ऊपर की ओर उठी हुई सुनिर्मित पूंछ से भूमि को आस्फालित कर रहा था। सौम्य, सौम्य आकार वाले, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए, आकाश-पथ से उतर कर अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। जागृत होकर वह हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प की भांति रोम कूप उच्छूसित हो गए। उसने उस स्वप्न का अवग्रहण किया, अवग्रहण कर शयनीय से उठी । उठकर वह अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी जैसी गति से जहां बल राजा का शयनीय था, वहां आई, वहां आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय श्री-संपन्न, मृदु, मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई राजा बल को जगाया जगाकर बन्न राजा की अनुज्ञा से नाना मणि रत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन पर बैठ गई। आश्वस्त, विश्वस्त हो, प्रवर सुखासन पर बैठकर राजा बल को इष्ट, कांत यावत् मृदु-मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई इस प्रकार बोली- देवानुप्रिय ! मैं आज शरीर प्रमाण उपधान वाले विशिष्ट शयनीय पर पूर्ववत् यावत अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। देवानुप्रिय क्या मैं मानूं ? इस उदार यावत् महास्वप्न का कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा ? १३४. देवी प्रभावती के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर राजा बल हृष्टतुष्ट चित्त बाला, आनंदित, नंदित प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसका शरीर मेघधारा से आहत कदंब के सुरभिकुसुम की भांति पुलकित एवं उच्छूसित रोमकूप वाला हो गया। उसने स्वप्न को अवग्रहण किया। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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