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________________ भगवई गुणा, आभिणिबोहिय-नाणी सुयनाणी आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः दो वि तुल्ला विसेसाहिया, केवलनाणी द्वावपि तुल्याः विशेषाधिकाः, केवलअणंत-गुणा॥ ज्ञानिनः अनन्तगुणाः। श. ८ : उ. २ : सू. २०५-२०७ आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु अवधिज्ञानी से विशेषाधिक, केवलज्ञानी उनसे अनन्तगुण २०६. भंते ! इन मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी विभंगज्ञानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहु. तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? २०६. एतेसि णं भंते ! जीवाणं मइअण्ण- एतेषां भदन्त ! जीवानां मति-अज्ञानिनां, णीणं, सुयअण्णाणीणं, विभंगनाणीण श्रुत-अज्ञानिनां, विभंगज्ञानिनां च कतरे य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बया। कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? वा? विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा विभंग- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः विभंगज्ञानिनः, नाणी, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी दो वि मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनः द्वावपि तुल्ला अणंतगुणा। तुल्याः अनन्तगुणाः। गौतम ! विभंगज्ञानी जीव सबसे अल्प हैं। मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु विभंगज्ञानी से अनन्त गुण हैं। २०७. भंते! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? २०७. एतेसि णं भंते! जीवाणं एतेषां भदन्त ! जीवानाम् आभिनि- आभिणिबोहियनाणीणं सुयनाणीणं बोधिकज्ञानिनां श्रुतज्ञानिनां अवधिज्ञानिनां ओहिनाणीणं मणपज्जवनाणीणं ___ मनःपर्यवज्ञानिनां केवलज्ञानिनां मतिकेवलनाणीणं मतिअण्णाणीणं सुय- अज्ञानिनां श्रुतअज्ञानिनां विभंगज्ञानिनां च अण्णाणीणं विभंगनाणीण य कयरे कतरे कतेरभ्यः, अल्पाः वा ? बहुकाः वा? कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मण- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः मनःपर्यवपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखे- ज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः असंख्येयगुणाः, ज्जगुणा, आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनश्च य दो वि तुल्ला विसे-साहिया, द्वावपि तुल्याः विशेषाधिकाः, विभंगविभंगनाणी असंखेज्ज-गुणा, केवल- ज्ञानिनः असंख्येयगुणाः, केवलज्ञानिनः नाणी अणंतगुणा, मइअण्णाणी अनन्तगुणाः, मति-अज्ञानिनः श्रुतसुयअण्णाणी य दो वि तुल्ला अज्ञानिनश्च द्वावपि तुल्याः अनन्तगुणाः। अणंतगुणा॥ गौतम ! मनःपर्यवज्ञानी जीव सबसे अल्प, अवधिज्ञानी उनसे असंख्येय गुण अधिक, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु अवधिज्ञानी से विशेषाधिक, विभंगज्ञानी उनसे असंख्येय गुण अधिक, केवलज्ञानी अनन्त गुण, मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु उनसे अनन्त गुण हैं। भाष्य १. सूत्र २०५-२०७ सम्यकदर्शनी पंचेन्द्रिय जीवों में होता है। इसके अतिरिक्त मनःपर्यवज्ञान केवल ऋद्धि प्राप्त संयति के होता है इसलिए सास्वादन सम्यकदर्शन विकलेन्द्रिय (दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और मनःपर्यवज्ञानी अल्पसंख्यक हैं।' चतुरिन्द्रिय) जीवों में भी होता है। अवधिज्ञान चारों गति के जीवों में होता है इसलिए अवधि केवलज्ञानी इनसे अनंत गुणाधिक है। इसका हेतु यह है-सिद्ध ज्ञानी की संख्या मनःपर्यवज्ञानी से असंख्येयगुण अधिक है। सर्व ज्ञानी जीवों से अनंतगुण अधिक होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों की सह व्याप्ति है केवल पंचेन्द्रिय जीव ही विभंगज्ञानी होते हैं, इसलिए इसलिए आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य तथा अल्पसंख्यक हैं। मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य तथा अवधिज्ञानी की अपेक्षा विशेषाधिक होते हैं। मति और श्रुतज्ञान विभंगज्ञानी से अनंत गुण अधिक हैं।' १. भ. वृ. ८/२०५.२०७-यस्माद् ऋद्धिप्राप्तादि संयतस्यैव तद्भवति। २. वही, ८/२०५-२९,७-अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु संतीति तेभ्योऽसंख्येयगुणाः। ३. वही, ८/२०५-२०७-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योन्यं तुल्याः अवधिज्ञानिभ्यस्तु विशेषाधिका यतस्तेऽवधिज्ञानिनोऽपि मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवधिमनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवध्यादिरहिता अपि पंचेन्द्रिया भवन्ति सास्वादनसम्यग्दर्शनसद्भावे विकनेन्द्रियाऽपि च श्रुतज्ञानिनो लभ्यन्त इति। ४. भ. वृ. ८/२०५-२०७- सिद्धानां सर्वज्ञानिभ्योनंतगुणत्वान्। ५. वही, ८/२०५-२०७-विभंगज्ञानिनः स्तोकाः यस्मान् पंचेन्द्रिया एव ते भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणाः मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति। तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः परस्परतश्च तुल्याः। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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