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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ४२१,४२२
भाष्य १.सूत्र ४१९.४२०
में पूज्यपाद ने ज्ञान प्रदोष का अर्थ विशिष्ट किया है। किसी के द्वारा कर्मबंध का हेतु है-आस्रव। उसके पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, तत्त्वज्ञान के महत्त्व का प्रतिपादन करने पर मौन रहना अंतः-पैशुन्य अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । प्रस्तुत आलापक में आश्रवजनित का परिणाम है, वह प्रदोष है। प्रवृत्तियों का बाह्य हेतु के रूप में और कर्म के उदय का अंतरंग हेतु के ज्ञान अत्याशातना-श्रुत अथवा श्रुतवान् की अवहेलना रूप में विधान किया गया है।
करना। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार ज्ञानाशातना का अर्थ है-दूसरा कोई ज्ञानावरणीय कर्म शरीर निर्माण के दो हेतु हैं-बाह्य और ज्ञान का प्रकाश कर रहा है, उस समय वचन और काया से उसका अंतरंग। बाह्य हेतु ज्ञान प्रत्यनीकता आदि छह बतलाए गए हैं। निषेध करना आशातना है। उसका अंतरंग हेतु ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग नामक कर्म का ज्ञान-विसंवादना-श्रुत और श्रुतवान् के प्रति विसंवाद दिखाने उदय है। कर्म के परमाणु-स्कंधों से कर्म शरीर की रचना होती है। का प्रयत्न करना, उनकी निश्चायकता में प्रश्नचिह्न उपस्थित कर्म की अनेक प्रवृत्तियां हैं-कर्म शरीर में उन सब प्रकृतियों के करना। प्रकोष्ठ बन जाते हैं। अतीत में निर्मित कर्म शरीर सक्रिय होता है तब उमास्वाति ने ज्ञानावरण और दर्शनावरण के छह आस्रव नए कर्म परमाणु स्कंधों को ग्रहण कर उन्हें अपने साथ जोड़ता रहता बतलाए है। है। बंध का मुख्य हेतु कर्म शरीर है। तत्त्वार्थ सूत्र और भाष्यानुसारिणी तत्त्वार्थ सूत्र और प्रस्तुत आगम में नाम भेद और क्रम में इसका स्पष्ट संकेत उपलब्ध है।' इस दृष्टि से ज्ञानावरण भेद-दोनों मिलते हैं। कर्मशरीर के निर्माण का मुख्य कारण ज्ञानावरण कर्म शरीर प्रयोग भगवती
तत्त्वार्थ सूत्र नामक कर्म का उदय बनता है।
ज्ञान प्रत्यनीकता
ज्ञान-प्रदोष शब्द विमर्श
ज्ञान निलवन
ज्ञान-निव ज्ञान प्रत्यनीकता-ज्ञान (श्रुत) और ज्ञानी (श्रुतवान्) के
ज्ञानांतराय
ज्ञान-मात्सर्य प्रतिकूल आचरण करना।
ज्ञान-प्रदोष
ज्ञानांतराय ज्ञान निलवन-श्रुत और श्रुत गुरु का अपलाप करना।
ज्ञान-अत्याशातना
ज्ञान-आसादन ज्ञानांतराय-श्रुत के ग्रहण में विघ्न उपस्थित करना।
ज्ञान-विसंवादना
ज्ञान-उपघात सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार ज्ञान का विच्छेद करना अंतराय है। दर्शनावरण ज्ञानावरण की भांति वक्तव्य है।
ज्ञान प्रदोष-श्रुत एवं श्रुतवान् के प्रति अप्रतीति। सर्वार्थ सिद्धि ४२१. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीर- दर्शनावरणीयकर्मकशरीर - प्रयोगबन्धः ४२१. भंते! दर्शनावरणीय कर्म शरीर प्रयोग प्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? उदएण? गोयमा! दंसणपडिणीययाए, दसण- गौतम ! दर्शनप्रत्यनीकतया, दर्शननिह्नवेन, गौतम! दर्शनावरणीय कर्म शरीर प्रयोग णिण्हवणयाए, सणंतराएणं, सण- दर्शनान्तरायण, दर्शनप्रदोषेण, दर्शनात्या- बंध के सात हेतु हैंप्पदोसेणं, सणच्चासातणयाए, दंसण- शातनया, दर्शनविसंवादनायोगेन दर्शना- दर्शन का विरोध अथवा प्रतिकूल आचरण, विसंवादणाजोगेणं सणावरणिज्ज- वरणीयकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः दर्शन का अपलाप, दर्शन के ग्रहण में विघ्न कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदयेन दर्शनावरणीयकर्मकशरीरप्रयोग- उपस्थित करना, दर्शन के प्रति अप्रीति उदएणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीर बन्धः
रखना, दर्शन में विसंवाद दिखलाना, प्पयोगबंधे॥
दर्शनावरणीय शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
४२२. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोग- बंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?
सातावेदनीयकर्मक - शरीरप्रयोगबन्धः ४२२. 'भंते ! सातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है ?
१. न. सू. भा. वृ.८/३ तथा भाष्य-स बंधः।.......स एष कर्मशरीर पुद्गलग्रहणकृतो बंधो भवति।......कर्मशरीरमिति कार्मणशरीरमात्मैक्याद् योग-कषायपरिणतियुक्तमपि च कर्मयोगपुद्गलग्रहणे आत्मसात्करणे एकत्वपरिणामापादने समर्थम्। २. भ. वृ. ८/४१०-४२९-ज्ञानावरणिज्जमित्यादि ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोगनाम तत्तथा तस्य कर्मणस्य
उदयेनैति। ३. सर्वार्थसिद्धि, ६/१० की वृत्ति-ज्ञानव्यवच्छेदकरणमंतरायः। ४. वही, ६/१० की वृत्ति-तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्य
चिदनभिव्याहरतः अंतःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। ५. वही, ६/१० की वृत्ति-कायेन वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनम्। ६.त.स. ६/११-तत्प्रदोषनिहवमात्सर्यान्तरायाखादनोपधाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ।
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