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भगवई
श. ८ : उ.९ : सू. ४२२,४२३
१६२ गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणु- गौतम! प्राणानुकम्पया, भूतानुकम्पया, कंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणु- जीवानुकम्पया, सत्वानुकम्पया. बहूनां कंपयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं प्राणानां भूतानां जीवानां सत्वानाम् अदु:- सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए खनेन अशोचनेन अखेदनेन ‘अतिप्पणअजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए याए', अपिट्टनेन, अपरितापनेन साताअपरिया-वणयाए सायावेयणिज्ज- वेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदयेन सातावेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगउदएणं सायावेयणिज्जकम्मासरीर- बन्धः। प्पयोगबंधे॥
गौतम! सातावेदनीय कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के हेतु है-प्राणों की अनुकंपा, भूतों की अनुकंपा,जीवों की अनुकंपा, सत्त्वों की अनुकंपा अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखित न करना, उन्हें दीन न बनाना, शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा न करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा न करना, लाठी आदि का प्रहार न करना,शारीरिक परिताप न देना,साता-वेदनीय शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
४२३. असायावेयणिज्जकम्मासरीरप्प- असातावेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः ४२३. भंते! असातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग योगबंधे णं भंते! कस्स कम्मरस उदएणं? । भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? गोयमा! परदुक्खणयाए, परसोयण- गौतम! परदुःखनेन, परशोचनेन, परखे- गौतम! असातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग याए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, दनेन, ‘परतिप्पणयाए', परपिट्टनेन, पर- बंध के हेतु हैं-प्राणों की अनुकंपा न करना, परपिट्टणयाए, परपरियावणयाए, बहूणं परितापनेन, बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां भूतों की अनुकंपा न करना, जीवों की पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं सत्वानां दुःखनेन शोचनेन जूरणेन,तिप्पण- अनुकंपा न करना, सत्त्वों की अनुकंपा न दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए याए पिट्टनेन परितापनेन असातावेद- करना, अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों तिप्पणयाए पिट्टणयाए परियावणयाए नीयकर्मशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन को दुःखित करना, उन्हें दीन बनाना, असायावेयणिज्ज-कम्मासरीरप्पयोग- असाता-वेदनीयकर्मशरीरप्रयोगबन्धः। शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा बंधे।
करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा करना, लाठी आदि का प्रहार करना, शारीरिक परिताप देना, असातवेदनीय
शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
भाष्य १.सूत्र ४२२-४२३
नामक कर्म का उदय है। सातवेदनीय कर्म शरीर निर्माण के बाह्य हेतु प्राणानुकंपा आदि शब्द विमर्श के लिए द्रष्टव्य भगवती ७/११३-११६ का हैं। उसका अंतरंग हेतु सातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग नामक कर्म का भाष्य। उदय है।
उमास्वाति ने सात वेदनीय के सात और असातवेदनीय के असातवेदनीय कर्म शरीर निर्माण के बाह्य हेतु पर को दुःख छह आश्रव बतलाए हैं। वे प्रस्तुत आगम में निर्दिष्ट हेतुओं से देना आदि हैं। उसका अंतरंग हेतु असातवेदनीय कर्म-शरीर प्रयोग भिन्न है।' भगवती सूत्र
तत्त्वार्थ सूत्र सात वेदनीय असातवेदनीय
सातवेदनीय
असातवेदनीय १.प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों । १. दूसरों को दुःख देने से। १. भूतानुकंपा के प्रति अनुकंपा करने से। २. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों २. दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न २.व्रती-अनुकंपा
२.शोक को दुःख न देने से।
करने से। ३. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों ३. जीवों को विषाद या चिंता उत्पन्न | ३. दान-अनुकंपा
३.ताप को शोक उत्पन्न न करने से। करने से। ४. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों दूसरों को रुलाने या विलापक ४. सराग संयम
४. आक्रन्दन को चिंता उत्पन्न न कराने से। कराने से।
१. (क)त. सू.६/१२-दुःखशोकतापाकन्दनवद्यपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसवेद्यस्य।
(ख) वही, ६ १३-भृतव्रत्यनुकंपा दानं सरागसंयमादि योगः क्षान्ति शीचमिति सवेद्यस्य।
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