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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १८७,१८८ जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता-देखता है।
तरक
पलिओवमस्स, असंखिज्जयभागं, असंख्येयकभागम्. उत्कर्षेणाऽपि पल्योउक्कोसेण वि पलिओवमस्स । पमस्य असंख्येयकभागम् अतीतमनागतं वा असंखिज्जयभागं अतीय-मणागयं वा कालं जानाति-पश्यति। कालं जाणइ-पासइ। तंचेव विउलमई अब्भहियतरागं विउल- तच्चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतर तरागं विसुद्धतरागं विति-मिरतरागं विपुल-तरकं विशुद्धतरकं वितिमिरतरकं जाणइ-पासइ।
जानाति-पश्यति। भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ- भावतः ऋजुमतिः अनन्तान् भावान् पासइ, सव्वभावाणं अणंत-भागं जाणइ- जानाति-पश्यति, सर्वभावानामनन्तभागं पास।
जानाति-पश्यति। तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउल- तच्चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतरकं तरागं विसुद्धतरागं विति-मिरतरागं विपुलतरकं विशुद्धतरकं वितिमिरतरकं जाणइ-पासइ॥
जानाति-पश्यति।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उस काल खण्ड को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर जानता-देखता है। भाव की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनंत भावों को जानता-देखता है।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर जानता-देखता है।
१८८. केवलनाणस्स णं भंते! केवतिए केवलज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८८. भंते! केवलज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउबिहे पण्णत्ते, गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, गौतम ! केवलज्ञान का विषय संक्षेप में चार तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः भावतः। प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य की दृष्टि भावओ।
से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से.
भाव की दृष्टि से। दव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि जानाति- द्रव्य की दृष्टि से केवलज्ञानी सब द्रव्यों को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं जानाति- क्षेत्र की दृष्टि से केवलज्ञानी सर्वक्षेत्र को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं कालतः केवलज्ञानी सर्व कालं जानाति- काल की दृष्टि से केवलज्ञानी सर्वकाल को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे भावतः केवलज्ञानी सर्वान् भावान जानाति- भाव की दृष्टि से केवलज्ञानी सब भावों को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है।
भाष्य १. सूत्र १८४-१८८
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आदेश का अर्थ प्रकार किया है प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान तथा अज्ञान की ज्ञेय-वस्तु का
आभिनिबोधिकज्ञानी ओघादेस (सामान्य आदेश) से सब द्रव्यों प्रतिपादन किया गया है।
को जानता है किन्तु वह सब विशेषों की दृष्टि से सब द्रव्यों को नहीं जेय के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल.और भाव। प्रस्तुत
जानता। तात्पर्य की भाषा में यह आभिनिबोधिक ज्ञान के ज्ञेय की सूत्र में ज्ञेय के आधार पर ज्ञान के चार भेद किए गए हैं।
सीमा का निर्देश है। वह सामान्यतः कुछेक पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य आभिनिबोधिक ज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और ।
को जानता है।' सर्वभाव को जानता है।
आभिनिबोधिकज्ञानी सब भावों को जानता है। जिनभद्रगणि आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। परोक्ष
ने इसका अर्थ किया है--आभिनिबोधिकज्ञानी औदयिक, ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म, दूरस्थ और व्यवहित विषय को नहीं जाना जा
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक-इन पांच भावों सकता इसीलिए आदेश शब्द का प्रयोग किया गया है।
को सामान्य या जाति के रूप में जानता है।'
१. (क) वि. भा. गा. ४०२-४०४--
तं पुण चउब्विहं, नेयमेयओ तेण जं तदुवउत्तो। आदेसेणं सव्यं दव्वाइ चाउब्विहं मुणइ।। आएसोत्ति पगारो, आहादेसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थि आइयाई जाणड न उ सव्वभेएणं॥
खेतं लोगालोगं कालं सव्वन्द्रमहव तिविहंति।
पंचोदयाई ए भावे जं नेयमेव इयं ।। (ख) भ. वृ.८.१८४-१८५। २.वि. भा. गा. ४०४
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