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श.८ : उ.२ : सू. १८८
भगवई
आदेश का दूसरा अर्थ सूत्र किया गया है। आभिनिबोधिक का प्रयोग किया गया है। ज्ञानी सूत्र के अनुसार सब द्रव्यों को जानता है। इस आदेश शब्द नंदी में "ण पासई" पाठ उपलब्ध है। नंदी की चूर्णि में के द्वारा केवलज्ञान और आभिनिबोधिकज्ञान के ज्ञेय की सीमा को
इसका अर्थ किया है-आभिनिबोधिक ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि स्पष्ट किया गया है।
सब द्रव्यों को नहीं देखता, उचित देश में अवस्थित रूप आदि को श्रुतज्ञानी के साथ उपयुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है। चक्षु-अचक्षुदर्शन के द्वारा देखता भी है। इसका तात्पर्य है कि वह श्रुतोपयोग पूर्वक सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र
भगवती में 'पासई' और नंदी में ‘ण पासइ इन दो विरोधी सर्वकाल, और सर्वभाव को जानता है।
वक्तव्यों का समन्वय नंदी के व्याख्या ग्रन्थों के आधार पर किया उपयुक्त शब्द के द्वारा केवलज्ञान और श्रुतज्ञान के ज्ञेय की जा सकता है। आभिनिबोधिकज्ञानी सब द्रव्यों को देखता है. सीमा स्पष्ट होती है। देखें तुलनात्मक यंत्र
इसकी अपेक्षा यह है कि वह चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन के
विषयभूत सब द्रव्यों को देखता है। निषेध की अपेक्षा यह है कि आभिनिबोधिक । श्रुतज्ञान केवलज्ञान
आभिनिबोधिक- ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्यों को नहीं द्रव्य आदेशतः सर्व श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व द्रव्यों को
देखता इसलिए वह सब द्रव्यों को नहीं देखता। द्रव्यों को में सर्व द्रव्यों को जानता-देखता है। जानता-देखता | जानता-देखता है।
श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को देखता है। अभयदेवसरि ने इसकी
व्याख्या की है। उन्होंने सब द्रव्यों का नियामक सूत्र दिया है। जो क्षेत्र आदेशतः सर्व क्षेत्रों| श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व क्षेत्रोको जानता
अभिलाप्य द्रव्य हैं, उन सब द्रव्यों को जानता है। जानने के दो को जानता- में सर्व क्षेत्रों को देखता है।
साधन हैं-श्रुतानुवर्ती मानसज्ञान और अचक्षुदर्शन। संपूर्ण देखता है। जानता-देखता है।
दशपूर्वधर आदि तथा श्रुतकेवली सर्व अभिलाप्य द्रव्यों को जानताकाल आदेशतः सर्व श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व काल को
देखता है, संपूर्ण दशपूर्व से निम्न ज्ञान वालों के लिए भजना है।' काल को में सर्व काल को | जानता-देखता है।
वृद्ध व्याख्या के अनुसार 'पश्यति' का स्पष्टीकरण इस प्रकार जानता-देखता | जानता-देखता है।
है-प्रज्ञापना में श्रुतज्ञान की पश्यत्ता का प्रतिपादन किया गया है।"
विशेषावश्यक-भाष्य में भी पश्यत्ता की चर्चा उपलब्ध है। भाव आदेशतः सर्व | श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व भावों को
श्रुतज्ञानी के द्वारा अनुत्तरविमान आदि अदृष्ट भूखण्डों का भाव को जानता- | में सर्व भावों को जानता-देखता है। आलेख्य किया जाता है। सर्वथा अदृष्ट का आलेख्य नहीं किया जा देखता है। जानता-देखता है।
सकता।' यद्यपि अभिलाप्य भावों का अनंतवां भाग श्रुतनिबद्ध है
फिर भी सामान्य विवक्षा में सब अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के ज्ञेय तत्त्ववेना, दार्शनिक और वैज्ञानिक अपनी मति से संपूर्ण हैं, ऐसा कहा जाता है। इस अपेक्षा से यह पाठ है कि श्रुतज्ञानी सब विश्व रचना और विश्ववर्ती पदार्थों के बारे में चिंतन करते हैं, शोध भावों को जानता-देखता है। करते हैं और नई नई स्थापना करते हैं। उनमें औत्पत्तिकी बुद्धि का
भगवती (१/२०४) में अवधिज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए विकास भी होता है। उसके द्वारा अदृष्ट और अश्रुत तत्त्वों को जान है-आधोवधिक और परमाधोवधिक। स्थानांग में अवधिज्ञान के लेने हैं। किसी पूर्व परंपरा और शास्त्र का अनुसरण किए बिना।
देशावधि और सर्वावधि-ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। जयधवला में अनेक नए तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं इसलिए आभिनिबोधिक
अवधिज्ञान के तीन प्रकार मिलते है-देशावधि, परमावधि और और श्रुतज्ञान की केवलज्ञान से सापेक्ष दृष्टि से तुलना की जाती
सर्वावधि।' प्रस्तुत सूत्र में विषयवस्तु का प्रतिपादन अवधिज्ञान के है। इस सापेक्षता को बताने के लिए ही आदेश और उपयुक्त शब्द
तीनों प्रकारों को लक्ष्य में रखकर किया गया है। अवधिज्ञानी १. वहीं, ४०५
न, सकलगोचरदर्शनायोगान्? अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः आपसो नि व सुनं सुउबलन्द्रेसु तस्स मइनाणं।
प्रतिपादितत्वादनुत्तरविमानादीनां चालेख्यकरणात सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यपसरई नब्भावणया विणा वि सुत्तानुसारेण।।
करणानुपपत्तेः। २. नंदी चू. पृ. ४२-ण परसइ ति सव्वे सामण्णविसेसादेसहिते धम्मादिए, ७. वही, ८/१८५-ननु भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणइ इति चक्खभचक्खुदसणेण रुव सद्दाइने केयिं पासति नि।
यदुक्तमिह तत 'सुए चरिते न पज्जवा सव्वे ति ( अभिन्नाप्यापेक्षया) अनेन ३. म. वृ. ८.१८५-सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' विशेषतोव- च सह कथं न विरुध्यते? उच्यते, इह सूत्रे सर्वग्रहणेन पंचौदयिकादयो भावा गच्छति, श्रुतज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वान्, पश्यति च श्रुतानुवर्तिनामानसेन गृह्यन्ते, तांश्च सर्वान जातितो जानाति, अथवा यद्यप्यभित्लाप्यानां भावानाअचक्षुदर्शनन सर्वद्रव्याणि चाभिलाप्यान्येव जानाति पश्यति चाभिन्नपूर्व- मनंतभाग एव श्रुतनिबद्धस्तथापि प्रसंगानुप्रसंगतः सर्वेष्य-भिन्नाप्याः श्रुतदशधरादिः श्रुतकेवली तदारतस्तु भजना, सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञातव्येति। विषया उच्यन्ते अतस्तदपेक्षया सर्वभावान् जानातीत्युक्तम्, अनभिलाप्य४. पण्ण. ३०.२।
भावापेक्षया तु 'सुए चरिते न पज्जवा सव्वे' इन्युक्नमिति न विरोधः। ५.वि. भा. गा.५५३-५६५।
८. ठाणं २/१०३-२०० तथा १९.३ का टिप्पण द्रष्टव्य। ६. भ. ७.८ १८५-वृन्द्रः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक्तं ननु पश्यतीति कथं? कथं च
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