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भगवई
जघन्यतः अनंत रूपी द्रव्यों को जानता देखता है, यह सर्व सामान्य निर्देश है। अवधिज्ञानी उत्कृष्टतः सब रूपी द्रव्यों को जानतादेखता है, यह निर्देश परमावधि और सर्वावधि की अपेक्षा से है। अनंत की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति में मिलती है। पुद्गल की आठ वर्गणाएं हैं
१. औदारिक वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तैजस वर्गणा ५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छवास वर्गणा ७. मनो वर्गणा ८. कर्म वर्गणा ।
नियुक्ति के अनुसार प्रारंभिक अवस्था वाला अवधिज्ञानी तैजस और भाषा वर्गणा के मध्यवर्ती द्रव्यों को जानता है।'
विशेषावश्यक भाष्य, नंदी चूर्णि, नंदी की हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरीया वृत्ति में भी इसी मत का अनुसरण है।' विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य हैं नंदी (सूत्र ७.२२) के पाद टिप्पण |
अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान का विषय है रूपी (मूर्त्त) द्रव्य । अरूपी द्रव्य उनका विषय नहीं है। अवधिज्ञान का विषय है सब रूपी द्रव्य । मनः पर्यवज्ञान का विषय केवल मनोवर्गणा के पुद्रल स्कंध हैं। समनस्क जीव मनन अथवा चिंतन करने के लिए मनोवर्गणा के पुल स्कंधों को ग्रहण करता है मनन के अनुरूप उन पुगल स्कंधों की आकृतियां बनती जाती हैं। उन आकृतियों की संज्ञा पर्याय है। मनः पर्यवज्ञानी मन की उन आकृतियों या पर्यायों का साक्षात्कार करता है। तात्पर्य की भाषा में मनन करने वाले व्यक्ति के विचारों का साक्षात् कर लेता है। विचार के समय जो चिन्त्यमान वस्तु होती है। उसका साक्षात्कार नहीं होता। जिनभद्रगणि के अनुसार चिन्त्यमान वस्तु को वह अनुमान से जानता है।
सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान को एक ही माना है । उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञान बिन्दु प्रकरण में उसका उल्लेख कर नय दृष्टि से उस पर विचारणा की है। पंडित सुखलालजी ने मनःपर्यवज्ञान के विषय में एक विमर्श प्रस्तुत किया है
मनः पर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है। या चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं - इस विषय में जैन परंपरा में ऐकमत्य नहीं । नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परन्तु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है, उसमें केवल दूसरा
१. आव, नि. गा. ३८
२. (क) वि. भा. गा. ६८३
नेयाकम्मसरीरं तेयादव् य भासदव्वे य ।
(ख) नंदी चू. पू. २० ।
(ग) हा. वृ. पृ. ३०/
(घ) नंदी मलयगिरीया बृ. प. ९०
३. वि. भा. गा. ८१३-८१४
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मुइ मणी दव्वाई नरोए सो मणिज्जमाणाः । काले भूय भविस्से पलियाऽसंखिज्जभागम्मि॥
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श. ८ : उ. २ : सू. १८८
ही पक्ष है, जिसका वर्णन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है। योग भाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं। योगभाष्य में तो चित्त के आलंबन का ग्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई है।
यहां विचारणीय दो बातें हैं-एक तो यह कि मनः पर्यायज्ञान के विषय के बारे में जो जैन वाङ्मय में दो पक्ष देखे जाते हैं. इसका स्पष्ट अर्थ क्या यह नहीं है कि पिछले वर्णनकारी साहित्य युग में ग्रंथकार पुरानी आध्यात्मिक बातों का तार्किक वर्णन तो करते थे पर आध्यात्मिक अनुभव का युग बीत चुका था। दूसरी बात विचारणीय यह है कि योगभाष्य, मज्झिमनिकाय और विशेषावश्यक भाष्य में पाया जाने वाला ऐकमत्य स्वतंत्र चिन्तन का परिणाम है या किसी एक का दूसरे पर असर भी है?"
मनः पर्यवज्ञान का विषय वास्तव में चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं। चिन्त्यमान वस्तु से उसका सीधा संबंध नहीं है। नंदी के चूर्णिकार ने इस विषय पर सुन्दर प्रकाश डाला है, उनका वक्तव्य है-चिन्त्यमान वस्तु मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार की हो सकती है। अमूर्त वस्तु मनः पर्यवज्ञान का विषय नहीं है। इसलिए मनः पर्यवज्ञान से मनोद्रव्य के पर्यायों का प्रत्यक्ष किया जा सकता है और चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जाना जा सकता है। अनुमान परोक्षज्ञान है इसलिए उसका मनः पर्यवज्ञान से सीधा संबंध नहीं है।
ज्ञान के दो विभाग हैं- क्षायोपशमिक और क्षायिक । मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यव-ये चार ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं इसलिए क्षायोपशमिक हैं । केवलज्ञान ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायिक है।
क्षायोपशमिक ज्ञान का विषय है मूर्त्तद्रव्य-पुङ्गलद्रव्य । क्षायिक ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अमूर्त्त द्रव्य हैं। क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा इनका प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकता। अमूर्त का ज्ञान परोक्षात्मक शास्त्र ज्ञान से होता है। "
दार्शनिक युग में केवलज्ञान की विषय वस्तु के आधार पर सर्वज्ञवाद की विशद चर्चा हुई है। पण्डित सुखलालजी ने उस चर्चा का समवतार इस प्रकार किया है- न्याय, वैशेषिक दर्शन जब सर्व
दव्यमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणं ते तेषावभासिए उण जाणड़ बज्झेऽणुमाणेणं ॥
४. ज्ञान. प्र. पृ. १८
५. वही, भूमिका पू. ४१-४२
६. नंदी चू. पृ. २४-सण्णिणा मणत्तेण मणिते मणोध अनंत अणनपदेसिए, दव्वट्टताए तग्गते य वण्णादिए भावे मणपज्जवणाणेणं पच्चक्खं पेक्खमाणी जाणातिनि भणितं । मणितमत्थं पुण पच्चवखं ण पेक्खति जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा सोय छदुमत्थो नं अणुमाणतो पेक्खति ति अनो पासणता भणिता ।
७. द्रष्टव्य भ. ८ १८५ ।
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