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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. १८८ विषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह सर्व शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है। सांख्य योग जब सर्व विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परंपरा में प्रसिद्ध प्रकृति। पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है। बौद्ध दर्शन सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध पंच स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है। वेदान्त दर्शन सर्व शब्द से अपनी परंपरा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एकमात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है। जैन दर्शन भी सर्व शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध सपर्याय षड्द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तदनुसारी लक्षण भी करते है।
पण्डित सुखलालजी की सर्वज्ञता विषयक मीमांसा का स्पष्ट फलित है कि 'सर्व' पद के विषय में सब दार्शनिक एक मत नहीं हैं। इसका मूल हेतु आत्मा और ज्ञान के संबंध की अवधारणा है। जैन । दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह एक है. अक्षर है, उसका नाम केवल ज्ञान है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का लक्षण व्यवहार और निश्चय-दो दृष्टियों से किया है-व्यवहार नय से केवली भगवान सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है। वह स्वप्रकाशी है, इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चय नय से आत्मा को जानतादेखता है, यह लक्षण संगत है। वह पर प्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है।
केवल ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह स्वभाव है इसलिए मुक्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है। प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कारित्व उसका स्वाभविक गुण है। ज्ञानावरण कर्म से आच्छन्न होने के कारण उसके मति, श्रुत आदि भेद बनते हैं। संग्रह दृष्टि से चार भेद किये गए हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव। तारतम्य के आधार पर असंख्य भेद बन सकते हैं। ज्ञानावरण का सर्व विलय होने पर ज्ञान के तारतम्य जनित भेद समाप्त हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
___ केवलज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ होता है। सर्वज्ञ और सर्वज्ञता न्याय प्रधान दर्शन युग का एक महत्त्वपूर्ण चर्चनीय विषय रहा है। जैन दर्शन को केवलज्ञान मान्य है इसलिए सर्वज्ञवाद उसका सहज स्वीकृत पक्ष है। आगम युग में उसके स्वरूप और कार्य का १. दर्शन चिंतन पृ. ४२९.-३० २. नंदी सू. ११ ३. नियमसार गाथा १२.१.१५०
जाणदि परसदि सव्वं, ववहारणयेण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि पियमेण अप्पाणं ।। ४. (क) नयचक्र लिखित प्रति पृ. १२३ अ.।
वर्णन मिलता है किन्तु उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया। दार्शनिक युग में मीमांसक, चार्वाक आदि ने सर्वज्ञत्व को अस्वीकार किया तब जैन दार्शनिकों ने सर्वजन्व की सिद्धि के लिए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। ज्ञान का तारतम्य देखा जाता है। जिसका तारतम्य होता है, उसका अंतिम बिन्दु तारतम्य रहित होता है। ज्ञान का तारतम्य सर्वज्ञता में परिनिष्ठित होता है। इस युक्ति का उपयोग मल्लवादी, हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। पण्डित सुखलालजी ने इस युक्ति का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए लिखा ह–'यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न है कि प्रस्तुत युक्ति का मूल कहां तक पाया जाता है और वह जैन परंपरा में कब से आई देखी जाती है। अभी तक के हमारे वाचनचिन्तन से हमें यही जान पड़ता है कि इस युक्ति का पुराणतम उल्लेख योगसूत्र के सिवाय अन्यत्र नहीं है। हम पातंजल योगसूत्र के प्रथम पाद में 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' (१.२५) ऐसा सूत्र पाते हैं, जिसमें साफ तौर से यह बतलाया गया है कि ज्ञान का तारतम्य ही सर्वज्ञ के अस्तित्व का बीज है जो ईश्वर में पूर्णरूपेण विकसित है। इस सूत्र के ऊपर के भाष्य में व्यास ने तो मानो सूत्र के विधान का आशय हस्तामलकवत् प्रकट किया है। न्याय-वैशेषिक परंपरा जो सर्वज्ञवादी है उसके सूत्र-भाष्य आदि प्राचीन ग्रंथों में इस सर्वज्ञास्तित्व की साधक युक्ति का उल्लेख नहीं है। हां, हम प्रशस्तपाद की टीका व्योमवती (पृ. ५६०) में उसका उल्लेख पाते हैं। पर ऐसा कहना नियुक्तिक नहीं होगा कि व्योमवती का वह उल्लेख योगसूत्र तथा उसके भाष्य के बाद का ही है। काम की किसी भी अच्छी दलील का प्रयोग जब एक बार किसी के द्वारा चर्चा क्षेत्र में आ जाता है तब फिर वह आगे सर्वसाधारण हो जाता है। प्रस्तुत युक्ति के बारे में भी यही हुआ जान पड़ता है। संभवतः सांख्ययोग परंपरा ने उस युक्ति का आविष्कार किया फिर उसने न्याय, वैशेषिक तथा बौन्द्र परंपरा के ग्रन्थों में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और उसी तरह वह जैन परंपरा में भी प्रतिष्ठित हुई।
जैन परंपरा के आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि प्राचीन अनेक ग्रंथ सर्वज्ञत्व के वर्णन से भरे पड़े हैं, पर हमें उपर्युक्त ज्ञानतारतम्य वाली सर्वज्ञत्व साधक युक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग मल्लवादी की कृति में ही देखने को मिलता है। अभी यह कहना संभव नहीं कि मल्लवादी ने किस परंपरा से वह युक्ति अपनाई। पर इतना तो निश्चित है कि मल्लवादी के बाद के सभी दिगंबर-श्वेताम्बर तार्किकों ने इस युक्ति का उदारता से उपयोग किया है।'
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है। वह अनावृत (ख) प्रमाण मीमांसा-अध्ययन?, आह्निक १. सूत्र १८ पृ. १५॥ (ग) ज्ञान. प्र. पृ. १९॥ ५. ज्ञान, प्र. भूमिका पृ. ४३-४४। ६. तत्त्व संग्रह पृ.८२५। ७. नयचक्र लिखित प्रति पृ. १२३ ।
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