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भगवई
अवस्था में भेद या विभाग शून्य होता है। आवरण के कारण उसके विभाग होते हैं और तारतम्य होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर उसकी पराकाष्ठा को केवलज्ञान मानना एक पक्ष है किन्तु इससे अधिक संगत पक्ष यह है कि केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव अथवा गुण है । जानावरण कर्म के कारण उसमें तारतम्य होता है। ज्ञानावरण के क्षय होने पर स्वभाव प्रगट हो जाता है।
किसी अन्य दर्शन में ज्ञान आत्मा का स्वभाव या गुण रूप में स्वीकृत नहीं है इसलिए उनमें सर्वज्ञता का वह सिद्धान्त मान्य नहीं है। जो जैन दर्शन में है। पंडित सुखलालजी ने सर्व शब्द को दर्शन के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार जो दर्शन जितने तत्त्वों को मानता है, उन सबको जानने वाला सर्वज्ञ होता है। जैन दर्शन ने 'सर्व' शब्द को स्वाभिमत द्रव्य की सीमा में आबद्ध नहीं किया है। उसे द्रव्य के अतिरिक्त क्षेत्र, काल और भाव के साथ संयोजित किया है। केवलज्ञान का विषय है
१. सर्व द्रव्य २. सर्व क्षेत्र ३. सर्व काल ४. सर्व भाव ।
द्रव्य का सिद्धान्त प्रत्येक दर्शन का अपना अपना होता है किन्तु क्षेत्र, काल और भाव ये सर्व सामान्य हैं। सर्वज्ञ सब द्रव्यों को सर्वथा सर्वत्र और सर्व काल में जानता देखता है।"
न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता। बौद्ध दर्शन में अन्वयी आत्मा मान्य नहीं है इसलिए बौद्ध भी सर्वज्ञवाद को स्वीकार नहीं करते। वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं। सांख्य दर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा स्पष्ट है। *
जैनदर्शन सम्मत सर्वज्ञता के विरोध में मीमांसकों ने प्रबल तर्क उपस्थिति किए। उनके अनुसार प्रत्यक्ष, उपमान, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि - किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती ।
न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं। वे ईश्वर को सर्वज्ञ १. नंदी चू. पृ. २८ - एते दव्वादिया सव्वे सव्वधा सव्वत्थ सव्वकालं उवयुत्तो सागाराऽणागारलक्खणेहिं णाणदंसणेहिं जाणति पासति य ।
२. सांख्यकारिका श्लोक ६४.६८
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम। अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ प्राप्त शरीरभेदे चरितार्थत्वाद, प्रधानविनिवृत्ती । ऐकान्तिकमात्यन्तिकमुभयं केवल्यमाप्नोति ।।
३. न्यायमंजरी पृ. ५०८
तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोपवर्गः प्रकीर्तितः ॥
४. तत्त्व संग्रह पृ. ८४६ ।
५. शास्त्रवार्ता समुच्चय ६२७-६४३।
६. आममीमांसा पृ. ७२ कारिका ५।
७. न्यायविनिश्चय कारिका न. ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, ४६५ ।
८. अष्टसहस्री पृ. ५०।
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श. ८ : उ. २ : सू. १८८
मानते हैं। कालक्रम से उनमें योगि प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है। पर जैन दर्शन सम्मत सर्वज्ञत्व की अवधारणा उनमें नहीं है। जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है। न्याय और वैशेषिक का मत है-मुक्त अवस्था में योगि प्रत्यक्ष नहीं रहता । ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगि प्रत्यक्ष अनित्य ।
शांतरक्षित ने कुमारिल के तर्कों का उत्तर दिया। किन्तु शांतरक्षित के उत्तर सर्वज्ञत्व की सिद्धि में बहुत महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। बौद्ध दर्शन सर्वज्ञत्व के विरोध में अग्रणी रहा है। उत्तरवर्ती बौद्धों ने सर्वज्ञत्व का जो स्वीकार किया है. वह अस्वीकार और स्वीकार के मध्य झूलता दिखाई देता है। सर्वज्ञत्व की सिद्धि में सर्वाधिक प्रयत्न जैन दार्शनिकों का है। इस प्रयत्न की पृष्ठभूमि में दो हेतु हैं
१. सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है।
२. मोक्ष के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य है।
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता का खण्डन किया, उसका उत्तर आचार्य हरिभद्र ने दिया। कुमारिल के तर्कों का उत्तर समंतभद, अकलंक, विद्यानन्द, 'प्रभाचन्द आदि ने दिया है। यदि हम तर्कजाल को सीमित करना चाहें तो नंदी का यह सूत्र पर्याप्त है - ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर सकल ज्ञेय को जानने की उसमें क्षमता है। " केवलज्ञान की परिभाषा
नंदी के अनुसार जो ज्ञान सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को जानता देखता है वह केवलज्ञान है।
आचारचूला से फलित होता है-केवलज्ञानी सब जीवों के सब भावों को जानता देखता है । ज्ञेय रूप सब भावों की सूची इस प्रकार है- १. आगति २. गति ३. स्थिति ४. च्यवन ५. उपपात ६. भुक्त ७. पीत ८. कृत ९. प्रतिसेवित १०. आविष्कर्म-प्रगट में होने वाला कर्म ११. रहस्य कर्म १२. लपित १३. कथित १४. मनो-मानसिक । १२ षट्खण्डागम में भी आचारचूला के समान ही सूत्र उपलब्ध है। देखें यंत्र
९. प्रमेयकमलमार्तण्ड पू. २५५।
१०. (क) नंदी सू. ७१।
(ख) नंदी सू. ३३/१
अह सव्वदव्यपरिणाम भाव विष्णत्ति कारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ।।
११. नंदी सू. ३३ ।
१२. आ. चू. १५/३९ - से भगवं अरिहे जिणे जाए केवली सव्वण्णु सव्वभावदरिसी, सदेवमणुया सुरस्स लोयस्स पजाए जाणइ, तं जहा- आगतिं गतिं ठितिं चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पांसमाणे, एवं च णं विहरइ ।
१३. ष. ख. १३ / ५,५,८२ पृ. ३४६-सई भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमनुसस्स लोगस्स आगदि गदिं चयणोववादं बंधं मोक्खं इहिं द्विदि अणुभागं तक्कं कलं मृणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं रहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि ।
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