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________________ श. ८ : उ. २ : सू. १८८ आयारचूला १. आगति २. गति ३. स्थिति ४. च्यवन ५. उपपात ६. भुक्त ७. पीत ८. कृत ९. प्रतिसेवित १०. आविष्कर्म ११. रहस्य कर्म १२. लपित १३. कथित १४. मनोमानसिक भाव १५. सर्व लोक १६. सर्व जीव १७. सर्व भाव षट्खण्डागम १. आगति २. गति ३. च्यवन ४. उपपात ५. बंध ६. मोक्ष ७. ऋद्धि ८. स्थिति ९. अनुभाग १०. तर्क Jain Education International ११. कल १२. मनोमानसिक भाव १३. भुक्त १४. कृत १५. प्रतिसेवित १६. आदि कर्म १७. रहस्य कर्म १८. सर्व लोक १९. सर्व जीव २०. सर्व भाव केवली मित और अमित दोनों को जानता है। अमित को जानता है यह नंदी आदि उत्तरवर्ती सूत्र-ग्रन्थों का वक्तव्य है । केवली मित को जानता है, इसकी व्याख्या आचारचूला के उक्त संदर्भ से स्पष्ट होती है। अमित और मित की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जा सकती है। निश्चय नय का सिद्धान्त यह है कि केवली समग्र को जानता है. उसका ज्ञान अनावृत है। इसलिए उसमें सबको जानने की क्षमता है। व्यवहार नय के आधार पर कहा जा सकता है कि केवली मित को जानता है, जिस समय जितना प्रयोजनीय है, उतना जानता है । अभयदेवसूरि ने मित के उदाहरण के रूप में गर्भज मनुष्य, जीव द्रव्य आदि का उल्लेख किया है और अमित के उदाहरण के रूप में वनस्पति, पृथ्वी, जीव द्रव्य आदि का उल्लेख किया है। " किन्तु अमित को जानता है फिर मित को जानता है-इस वचन की सार्थकता प्रतीत नहीं होती। इसलिए मित की व्याख्या व्यवहार नय के आधार पर और अमित की व्याख्या निश्चय नय के आधार पर की जाए तो अधिक संगत प्रतीत होती है। जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और १. भ. वृ. ५/६७ मियं पित्त परिणामवद् गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि। अमियं पित्ति अनंतमसंख्येय वा वनस्पति, पृथिवी, जीव द्रव्यादि । २. नंदी चू. पू. २८ । ३. द्रष्टव्य नियमसार गाथा १२.१.१५९ पृ. १४६ । ४. बृ. भा. पीठिका गाथा ३८ दव्वादि कसिण विसयं केवलमेगं तु केवलन्नाणं। अणिवारियवावारं, अणतम विकप्पियं नियतं ।। ६६ सर्वकाल में जानता देखता है, वह केवलज्ञान है।" आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर केवलज्ञान की परिभाषा की है। भगवई बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए हैं १. असहाय - इंद्रिय मन निरपेक्ष । २. एक- ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण । ३. अनिवारित व्यापार - अविरहित उपयोग वाला। ४. अनंत अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला । ५. अविकल्पित-विकल्प अथवा विभाग रहित। * तत्त्वार्थ भाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है । वह सब भावों का ग्राहक, संपूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। " उक्त व्याख्याओं के सन्दर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती है- सर्व द्रव्य का अर्थ है - मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला । केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। सर्व क्षेत्र का अर्थ है- संपूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने वाला । सर्वकाल का अर्थ है-सीमातीत अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीम काल को नहीं जान सकता । सर्व भाव का अर्थ है-गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला। केवलज्ञान या सर्वज्ञता की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। पण्डित सुखलालजी ने 'निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' योगदर्शन के इस सूत्र को सर्वज्ञ - सिद्धि का प्रथम सूत्र माना है। जैन आचार्यों ने भी इस युक्ति का अनुसरण किया है किन्तु सर्वज्ञता की सिद्धि का मूल सूत्र आगम में विद्यमान है। वह प्राचीन है तथा योगदर्शन के सूत्र से सर्वथा भिन्न है। सर्वज्ञता की सिद्धि का हेतु हैं अनिन्द्रियता । इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट है। उसका प्रतिपक्ष है अनिन्द्रिय ज्ञान । जो सत् है, उसका प्रतिपक्ष अवश्य है । इन्द्रियज्ञान का प्रतिपक्ष है अनिन्द्रिय ज्ञान । सर्वज्ञता इन्द्रिय और मन से सर्वथा निरपेक्ष है। केवलज्ञानी जानता देखता है-जाणई पासई- इन दो पदों का ५. त. सू. भा. वा. १/३० सर्वद्रव्येषु सर्वपययिषु च केवलज्ञानस्य विषयनिबंधो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहकं संभिन्नलोकालोकविषयम्। नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात् किंचिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारणं निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनंतपर्यायमित्यर्थः । ६. भ. ८/११७- अणिंदिया णं भंते! जीवा किं णाणी? जहा सिद्धा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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