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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १८८,१८९ उल्लेख किया है।
मलयगिरी (विक्रम की बारहवीं शताब्दी) ने हरिभद्रसूरि का ही अनुसरण किया है।
सन्मति के टीकाकार अभयदेवसूरि (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी) ने तीनों वादों के प्रवक्ताओं के नामों का उल्लेख किया
प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में साकार और अनाकार उपयोग की चर्चा नहीं है। नंदी में भी उनकी चर्चा नहीं है। भगवती में केवलज्ञान को साकार उपयोग और केवलदर्शन को अनाकार उपयोग बतलाया गया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के बारे में तीन मत मिलते हैं
१. क्रमवाद २. युगपत्वाद ३. अभेदवाद
क्रमवाद आगमानुसारी है। उसके मुख्य प्रवक्ता हैं जिनभद्रगणि। युगपत्वाद के प्रवक्ता हैं मल्लवादी। अभेदवाद के प्रवक्ता हैं सिद्धसेन दिवाकर।
जिनभद्रगणि ने विशेषणवती में तीनों पक्षो की चर्चा की है किन्तु किसी प्रवक्ता का नामोल्लेख नहीं किया। जिनदास महत्तर ने नंदी चूर्णि (विक्रम की आठवीं शताब्दी) में विशेषणवती को उद्धृत किया है। उन्होंने किसी वाद के पुरस्कर्ता का उल्लेख नहीं किया।
हरिभद्रसूरि (विक्रम की आठवीं शताब्दी) ने चूर्णिगत विशेषणवती की गाथाओं को उद्धृत किया है और पुरस्कर्ता आचार्यों का नामोल्लेख भी किया है। उनके अनुसार युगपतवाद के प्रवक्ता हैं-आचार्य सिद्धसेन आदि। क्रमवाद के प्रवक्ता हैं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि। अभेदवाद के प्रवक्ता के रूप में वृद्धाचार्य का
क्रमवाद के प्रवक्ता-जिनभद्र, युगपत्वाद के प्रवक्तामल्लवादी, अभेदवाद के प्रवक्ता-सिद्धसेन।
क्रमवाद के विषय में हरिभद्र और अभयदेव एक मत हैं। युगपत्वाद और अभेदवाद के बारे में दोनों के मत भिन्न हैं। सिद्धसेन अभेदवाद के प्रवक्ता हैं, यह सन्मति तर्क से स्पष्ट है। उन्हें युगपत्वाद का प्रवक्ता नहीं माना जा सकता। इस स्थिति में युगपतवाद के प्रवक्ता के रूप में मल्लवादी का नामोल्लेख संगत हो सकता है। उपलब्ध द्वादशार नयचक्र में इस विषय का कोई उल्लेख नहीं है। अभयदेव ने किस ग्रन्थ के आधार पर इसका उल्लेख किया, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
उपाध्याय यशोविजयजी ने तीनों वादों की समीक्षा की है और नय दृष्टि से उनके समन्वय का प्रयत्न किया है।'
१८९. मइअण्णाणस्स णं भंते ! केवतिए मति-अज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८९. 'भंते ! मति अज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउविहे गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम ! मति अज्ञान का विषय संक्षेप में चार पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, यथा--द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः भावतः। प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, कालओ, भावओ।
क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की
दृष्टि से। दव्वओ णं मइअण्णाणी मइ. द्रव्यतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञान- द्रव्य की दृष्टि से मति अज्ञानी मनि-अज्ञान अण्णाणपरिगयाइं दव्वाई जाणइ. परिगतानि द्रव्याणि जानाति-पश्यति। के विषयभूत द्रव्यों को जानता-देखता है। पासइ। खेत्तओ णं मइअण्णाणी मइ. क्षेत्रत: मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरिगतं क्षेत्र की दृष्टि से मति अज्ञानी मति अज्ञान के अण्णाणपरिगयं खेत्तं जाणइ-पासइ। क्षेत्र जानाति पश्यति।
विषयभूत क्षेत्र को जानता-देखता है। कालओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाण- कालतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरिगतं । काल की दृष्टि से मति अज्ञानी मति-अज्ञान परिगयं कालं जाणइ-पास। कालं जानाति-पश्यति।
के विषयभूत काल को जानता-देखता है। भावओ णं मइअण्णाणी मइ- भावतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरि- भाव की दृष्टि से मति अज्ञानी मति अज्ञान अण्णाणपरिगए भावे जाणइ-पासइ॥ गतान् भावान् जानाति-पश्यति।
के विषय भूत भावों को जानता-देखता है।
१. (क) भ. १६:१०८।
(ख) पण्ण, २०१३ २. विशेषणवती गाथा १५३-१५४)
केयी भणंति जुगवं जाणइ पासति य केवली नियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुतोवदेसेणं॥ अण्णे ण चेव वीसुं सणमिच्छति जिणपरिंदस्स।
जं चिय केवाननाणं तं चिय से दंसणं बैंति।। ३. नंदी चू. पृ. २८-३०। ४. नंदी वृ. पृ. ४० केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणति। किम? युगपद
एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च कः? केवली, न त्वन्यः: नियमाद नियमेन। अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकांतरितं जानानि पश्यति
चेत्येवमिच्छन्ति श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतागमानुसारेणेत्यर्थः अन्ये तु वृन्दाचार्या 'न' नैव विष्वक् पृथक् तदर्शनमिच्छंति जिनवरेन्द्रस्य केवलिनः इत्यर्थः। किं तर्हि? यदेव केवलज्ञानं तदेव नस्य केवलिनो न दर्शनं ब्रवते. क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभावात् केवलदर्शनाभावादिति भावना। ५. नंदी वृ. पत्र १३४। ६. सन्मति. टीका पृ. ६०८। ७. ज्ञान. पृ.३३-४३।
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