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________________ श. ८ : उ. २ : सू. १९०,१९१ १९०. सुयअण्णाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पण्णत्ते ? गोमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दव्वओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयाई दव्वाई आघ-वेइ, पण्णवेइ, परूवेई । खेत्तओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयं खेत्तं आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ | कालओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगय कालं आघवेइ, पण्णवेइ, परुवेइ ॥ भावओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगए भावे आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ ॥ १९१. विभंगनाणस्स णं भंते । केवतिए विस पण्णत्ते ? गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाई दव्वाई जाणइ पासइ । खेत्तओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयं खेत्तं जाणइ पासइ । कालओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयं कालं जाणइ - पासइ । भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ - पासइ । १. त. सू. भा. वा. १ ३२ पृष्ठ ११२ । ६८ श्रुत- अज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः । Jain Education International द्रव्यतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतानि द्रव्याणि आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । क्षेत्रतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतं क्षेत्रम् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । कालतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतं कालम् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । भावतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत- अज्ञानपरिगतान् भावान् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति । विभंगज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ? गौतम! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद् यथा- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः । द्रव्यतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतानि द्रव्याणि जानाति पश्यति । १. सूत्र ९८९-१९१ मति श्रुत और अवधि इन तीन का विपर्यय अज्ञान कहलाता है। १. मति ज्ञान का विपर्यय-मति अज्ञान । २. श्रुतज्ञान का विपर्यय - श्रुत अज्ञान ३. अवधिज्ञान का विपर्यय-विभंगज्ञान । मिथ्यादर्शन से युक्त होने के कारण इनसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं होता इसलिए इनकी संज्ञा अज्ञान है। " अज्ञान के विषय का निरूपण नंदी में उपलब्ध नहीं है। क्षेत्रतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतं क्षेत्रं जानाति पश्यति । कालतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतं कालं जानाति पश्यति । भावतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतान् भावान् जानाति पश्यति । भाष्य भगवई १९०. भंते! श्रुत अज्ञान का विषय कितना प्रज्ञप्त है ? For Private & Personal Use Only गौतम! श्रुत अज्ञान का विषय संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से । द्रव्य की दृष्टि श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत द्रव्यों का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है। क्षेत्र की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत क्षेत्र का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है। काल की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषय भूतकाल का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है। भाव की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत काल का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है। १९१. भंते! विभंगज्ञान का विषय कितना प्रज्ञप्त है ? गौतम ! विभंगज्ञान का विषय संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से । द्रव्य की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत द्रव्य को जानता देखता है। क्षेत्र की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत क्षेत्र को जानता देखता है। काल की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान विषयभूत काल को जानता - देखता है। भाव की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत भावों को जानता देखता है। विशेषावश्यक भाष्य भी इस विषय में मौन है। प्रज्ञापना में भी इसकी चर्चा नहीं है । मतिज्ञान सम्यग्दर्शन युक्त होता है इसलिए व्यापक बनता है । मति अज्ञान मिथ्यादर्शन युक्त होता है इसलिए उसका विषय मतिज्ञान की अपेक्षा सीमित है। मतिज्ञान से द्रव्य के जितने पर्याय सम्यक् रूप से जाने जाते हैं, वे मति अज्ञान से नहीं जाने जा सकते इसलिए सूत्रकार ने 'आएसेणं सव्वदव्वाई' के स्थान पर 'मइअण्णाणपरिगयाई दव्वाई' का प्रयोग किया है। यह नियम श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान पर भी लागू होता है। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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