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________________ भगवई श. १० : उ. ५ : सू. ६७-६९ ३५४ सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने 'तुडिएण' तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई सद्धिं दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः भुंजमाणे विहरित्तए? विहर्तुम? नो इणढे समढे॥ नो अयमर्थः समर्थः। चमर सिंहासन पर अंत:पुर के साथ दिव्य भोग भोगता हुआ विहरण करने में समर्थ यह अर्थ संगत नहीं है। ६८. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नो प्रभुः ६८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा चमरः असुरेन्द्रः असुरकुमारराजः चमर- है-असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर चमरचञ्चायां राजधान्यां यावत् विहर्तुम् ? चंचा राजधानी में यावत् दिव्य भोग भोगता हुआ विहरण करने में समर्थ नहीं अज्जो! चमरस्स णं असुरिंदस्स आर्य! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरअसुरकुमाररण्णो चमरचंचाए राय- कुमारराजस्य चमरचञ्चायां राजधान्यां, हाणीए, सभाए सुहम्माए, माणवए चेइय. सभायां सुधर्मायां, माणवके चैत्यस्तम्भे खंभे वइरामएसु गोलवट्ट-समुग्गएसु ___ वज्रमयेषु गोल-वृत्त-समुद्गतेषु बहवः बहुओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ जिनसक्थिनः सन्निक्षिप्ताः तिष्ठन्ति, याः चिट्ठति, जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य असुरकुमार-रण्णो अण्णेसिं च बहूणं अन्येषां च बहूनाम् असुरकुमाराणां देवानां असुर-कुमाराणं देवाण य देवीण य च देवीनां च अर्चनीयाः वन्दनीयाः अच्च-णिज्जाओ वंदणिज्जाओ नमस- नमनीयाः पूजनीयाः सत्करणीयाः सम्मानणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कार- नीयाः कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं णिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं पर्युपासनीयाः भवन्ति । तत् तेनार्थेन आर्य! मंगलं देवयं चेइयं पज्जु-वासणिज्जाओ एवमुच्यते-नो प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः भवंति। से तेणटेणं अज्जो! एवं वुच्चइ- असुरकुमारराजा चमरचञ्चायां राजधान्यां, नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने 'तुडिएणं' चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, साघु दिव्यानि भोगभोगानि भुजानः चमरंसि सिहासणंसि तुडिएणं सद्धिं विहर्तुम्। दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए। आर्यो! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मा सभा में माणवक चैत्य स्तंभ में वज्रमय गोलवृतवर्तुलाकार पेटियों में जिनेश्वर देव की अनेक अस्थियां रखी हुई हैं, जो असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर तथा अन्य बहुत असुरकुमार देव-देवियों के लिए अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय, कल्याणकारी, मंगल, दैवत, चैत्य और पर्युपासनीय होती है। आर्यो! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मा सभा में, चमर सिहासन पर अंतःपुर केसाथ दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ नहीं है। भाष्य १.सूत्र ६७-६८ जयाचार्य ने 'जिणसकहाओ' की लंबी समीक्षा की हैजिण नी दाढा होय, तो छै एह अशाश्वती। असंख्य काल अवलोय, तेहनी स्थिति कही नथी।। जिन दाढा आकार, पुद्गल स्थित्या तैहनें। कहि जिन-दाढ़ा सार, तो तसु कहियै शाश्वती ।। इस विषय में पूरा प्रकरण द्रष्टव्य है।'. जिण सकहाओ का उल्लेख समवाओं में भी मिलता है। ६९. पभू णं अज्जो! चमरे असुरिंदे असुर- प्रभुःआर्य! चमरः असुरेन्द्रः असुर- कुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए, कुमाराजः चमरचञ्चायां राजधान्यां, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने चतुष्- चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं, ताय- षष्ट्याः सामानिकसाहस्रीभिः, त्रयस्त्रिंशत् त्तीसाए तावत्तीसगेहिं, चउहिं लोग- तावत्त्रिंशकैः, चतुर्भिः लोकपालैः, पालेहि, पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरि- पञ्चभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवारैः चतुष्वाराहिं चउसठ्ठीए आयरक्खदेव- षष्ट्या आत्मरक्षदेवसाहस्रीभिः, अन्यैः च साहस्सीहिं, अण्णेहि य बहूहिं असुर- बहुभिः असुरकुमारैः देवैः च, देवीभिः च ६९. आर्यो! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा राजधानी की सभा सुधर्मा में चमर सिंहासन पर चौसठ हजार सामानिक, तैतीस त्रायस्त्रिंशक, चार लोकपाल, पांच अग्रमहिषियां, सपरिवार चौसठ हजार आत्मरक्षक देव, अन्य बहुत असुरकुमार देव और देवियों के साथ संपरिवृत है। वह आहत नाट्यों, गीतों १. भ. जो. ३/२२२ पृ.३३७-३३९। २. सम. ३५/५/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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