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भगवई
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श. १० : उ. ५ : सू. ६९-७३
कमारेहिं देवेहि य, देवीहि य सद्धिं सार्धं सम्परिवतः, महत आइतनाट्य-गीतसंपरिखुडे महयाहय नट्ट-गीय-वाइय- वादित-तन्त्री-तल-ताल-'तुडिय- घनमृदङ्गतंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्प- पटुप्रवादितरवेण भोगभोगानि भुञ्जानः । वाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंज- विहर्तुम ? माणे विहरित्तए ? केवलं परियारिड्डीए, नो चेव णं केवलं परिचार या, नो चेव मैथुनप्रत्ययम्। मेहुणवत्तियं॥
तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित्र, तंत्री, तल. ताल, त्रुटित धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हआ रहता है ?
केवल परिचारणा (शब्द श्रवण, रूप दर्शन) ऋद्धि का उपभोग करते हैं, मैथुन रूप भोग का नहीं।
७०. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुर- असुरकुमाररण्णो सोमस्स महा-रण्णो कुमारराजस्य सोमस्य महाराजस्य कति कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अग्रमहिष्यः प्रज्ञसाः? अज्जो! चतारि अग्गमहिसीओपणत्ताओ, आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् तंजहा कणगा, कणग-लता, चित्तगुत्ता, यथा-कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता, वसुंधरा। तत्थ णं गएमेगाए देवीए एगमेगं वसुन्धरा। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्सं परिवारे पण्णत्ते॥
देवीसहस्रं परिवारः प्रज्ञप्तः।
७०, भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज सोम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं? आर्य ! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता, वसुंधरा। उनमें से प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी परिवार प्रजप्त है। यह है अंतःपुर की वक्तव्यता।
७१. पभू णं ताओ एगामेगा देवी अण्णं एगमेगं देवीसहस्सं परियारं विउवित्तए? एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा । सेतं तुडिए॥
प्रभुः ताः एकैका देवी अन्यम् एकैकं देवी- सहस्रं परिवारं विकर्तुम् ? एवमेव सपूर्वापरेण चत्वारि देवीसहस्राणि। तदेतत् 'तुडिए'।
७१. क्या एक देवी अन्य एक हजार देवी परिवार की विक्रिया करने में समर्थ है ? हां, है। इसी प्रकार पूर्व अपर सहित चार हजार देवी परिवार विक्रिया करने में समर्थ
७२. पभू णं भंते! चमरस्स असुरिं-दस्स प्रभुः भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमाररण्णो सोमे महाराया असुरकुमारराजस्य सोमः महाराजः सोमायां सोमाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, राजधान्यां, सभायां सुधर्मायां, सोमे सोमंसि सीहासणसि तुडिएणं सद्धिं सिंहासने 'तुडिएणं सद्धिं दिव्यानि दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे भोगभोगानि भुञ्जानः विहर्तुम ? अवशेष विहरितए? अवसेसं जहा चमरस्स । यथा चमरस्य, नवरं-परिवारः यथा नवरं-परियारो जहा सूरियाभस्स। सेसं सूर्याभस्य। शेषं तच्चैव यावत् नो चैव तं चेव जाव नो चे णं मेहणवत्तियं। मैथुनप्रत्ययम्।
७२. भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज सोम सोम राजधानी की सुधर्मा सभा में सोम सिंहासन पर अंतःपुर के साथ दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ हैं ? अवशेष चमर की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है-परिवार सूर्याभदेव की भांति (रायपसेणइय ७) वक्तव्य है। शेष पूर्ववत यावत् मैथुन रूप भोग का नहीं।
७३. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरकुमार- असुरकुमार रण्णो जमस्स महा-रण्णो राजस्य यमस्य महाराजस्य कति कति अग्गमहिसीओ?
अग्रमहिष्यः? एवं चेव, नवरं-जमाए रायहाणीए, सेसं एवं चैव, नवरं यमायां राजधान्यां, शेषं जहा सोमस्स। एवं वरुणस्स वि, यथा सोमस्य। एवं वरुणस्यापि, नवरं नवरं-वरुणाए रायहाणीए। एवं वरुणायां राजधान्याम्। एवं वैश्रमणस्यापि, वेसमणस्स वि, नवरं-वेसमणाए नवरं-वैश्रमणायां राजधान्याम्। शेषं रायहाणीए। सेसंतं चेव जाव नो चेव णं तच्चैव यावत् नो चैव मैथुनप्रत्ययम्। मेहुणवत्तियं।
७३. भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज यम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त हैं? पूर्ववत, इतना विशेष है-यम राजधानी में शेष सोम की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार वरुण की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वरुण राजधानी में। इसी प्रकार वैश्रमण की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वैश्रमण राजधानी में। शेष पूर्ववत् यावत मैथुन रूप भोग का नहीं।
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