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________________ श.८ : उ.८ : सू. ३०१ भगवई आचार्य ने कहा-वत्स! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूल विधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त है या नहीं?' प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान हैं। उस आकरग्रंथ से प्रायश्चित्तों का नि!हण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार-इन तीनों सूत्रों में उनका समावेश किया गया है। आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं। वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता। आज भी तीर्थ चारित्र सहित है तथा उसके निर्यापक भी हैं। (विस्तृत वर्णन के लिए देखें व्यवहार, उद्देशक १० भाष्य ३५१६०२)। २. श्रुत व्यवहार-जो बृहत्कल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। यहां श्रुत के भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया आकांक्षी हैं। वे सोचते हैं-आलोचना देने वाले आचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास जा नहीं सकता तथा वे आचार्य भी यहां आने में असमर्थ हैं, अतः मुझे आज्ञा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए। 'वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहलाते हैं-आर्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' शिष्य वहां जाता है और आचार्य को यथोक्त बात कहता है। आचार्य भी वहां जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधावी शिष्य को वहां भेजने की बात सोचते हैं। तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञापरिणामकर, अवग्रहण और धारणा में क्षम, सूत्र और अर्थ में मूढ़ न होने वाला होता है, उसे वहां भेजते हुए कहते हैं-'वत्स! तुम वहां आलोचना आकांक्षी आचार्य के पास जाओ और उनकी आलोचना को सुनकर यहां लौट आओ, आचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास आलोचनाकांक्षी आचार्य सरल हृदय से सारी आलोचना करते हैं। आगन्तुक मुनि आलोचक आचार्य की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक अवग्रहण और धारण कर लेता है। वे कितने आगमों के ज्ञाता है ? उनकी प्रव्रज्या-पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी गृहस्थ तथा व्रत-पर्याय कितनी है? शारीरिक बल की स्थिति क्या है? वह क्षेत्र कैसा है ? ये सारी बातें श्रमण उन आचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने आचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था। आचार्य भद्रबाह ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार-इन दो सूत्रों का निर्वृहण किया था। जो इन दोनों सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है। ३. आज्ञा व्यवहार-कोई आचार्य भक्तप्रत्याख्यान अनशन में व्याप्त हैं। वे जीवन गत दोषों की शुद्धि के लिए अंतिम आलोचना के १.व्य. भा. उ.१०गा. ३४४ एवं तु चोइयम्मी आयरितो भणइ न हु तुमे नायं। पच्छित्तं कहियंतू किं धरती किं व वोच्छिन्नं ।। २.वही, ३४५ सव्वं पि य पच्छित्तं पच्चक्खाणस्स ततिय बत्थुमि। तत्तो वि य निच्छूढा पकप्पकप्पो य ववहारो॥ ३. वही, ३४६, वृत्ति। ४. वही, ६०५,६०७ जो सुयमहिज्जइ बहु सुतत्थं च निउणं विजाणाति। कप्पे ववहारम्मि य सो उ पमाणं सुयहराणं॥ कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्स व परमनिउणस्स। जो अत्थतो वियाणइ क्वहारी सो अणुण्णती॥ ५. वही, ६०८, वृत्ति-कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निथुढं तदेवानुमज्जननिपुणतरार्थं परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन व्यवहारविधिं यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुक्ते स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः। ६. वही, ६१०-६१५,६२७। समणस्स उत्तमटे सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। दूरत्था जत्थ भवे छत्तीसगुणा उ आयरिया।। अपरक्कमो सि जाओ गंतुं जे कारणं च उप्पन्न । अठारसमन्नयरे वसवगतो इच्छिमो आणं॥ अपरकम्मो तवस्सी गंतु जो सोहिकारगसमीवं। आगंतुं न वाएई सो सोहिकारोवि देसाउ। अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्टचेट्टागो। इच्छामज्जो काउंसोहि तुब्भं सगासम्मि॥ सोवि अपरक्कमगती सीसं पेसेइ धारणाकुसनं। एयस्स दाणि पुरओ करेइ सोहिं जहावत्तं॥ अपरक्कमो य सीसं आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। रुक्खे य बीयकाए सुत्ते वा मोहणाधारिं। एवं परिच्छिऊणं नाऊण पेसवे तं तु। बच्चाहि तस्सगासं सोहिं सोऊण आगच्छ।। ७. वही, गा. ६२८ अह सो गतो उ तहियं सगासम्मि सो करे साहिं। दुगतिगचउविसुद्ध विविहं काले विगडभावो॥ ८. वही, गा. ६५९, वृत्ति-श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनामालोचनाक्रमविधि च आलोचनाक्रमपरिपार्टी चावधार्य तथा तस्य यावनागमोस्ति तावन्तमागमं तथा पुरुषजातं तमष्टमादिभिर्भावितमभावितं वा पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावनासीत् यावांश्च तस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयं वा पर्यायं बलं शारीरिकं तस्य तथा यादृशं तत् क्षेत्रमेतत्सर्वमालोचकाचार्यकथनतः स्वतो दर्शनतश्चावधार्य स्वदेश गच्छति। ९. वही, ६६० आहारेउ सत्वं सो गंतूर्ण पुणो गुरुसगासं। तेसिं निवेदेइ तहा जहाणुपुब्बिं गत सव्वं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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