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________________ भगवई श.८: उ.८: सू. ३०१ आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधानपूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों (कल्प और व्यवहार) में निमग्न हो जाते हैं। वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर, सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यक् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं-'जाओ, उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ।' वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है। यह आज्ञा व्यवहार वृत्तिकार के अनुसार आज्ञा व्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ आचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हो, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गूढ़पदों में प्रष्टव्य विषय को निहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी उसी शिष्य के साथ गूढपदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है। ४. धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणा व्यवहार कहलाता है। अथवा वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र के धारण करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्धृत कर धारणा करवाने को धारणा व्यवहार कहा जाता है। उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं। १. उद्धारणा-छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा-विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा-धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना। ४. संप्रधारणा-पूर्व रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना। जो मुनि प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी आचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यक् पर्यालोचन कर धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते है। यह धारणा व्यवहार कहलाता है। यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को आलोचनाशुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणा व्यवहार कहलाता है। कोई शिष्य आचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर आचार्य के साथ रहता है, वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। अब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ पद उसे धारण करवाते हैं। वह छेदसूत्रों का अंशतः धारक होता है। वह भी धारणा व्यवहार का संचालन १. व्य. भा. उ, १०, गा.६६१-- सो क्वहारविहण्णू अणुमज्जिना सुतोवएसेणं। सीसस्स देई आणं नस्स इमं देहि पच्छितं। २. वही १०.गा. ६७३ एवं गंतृणं नहिं जहोवएसेण देहि पच्छित्तं। आणाए एस भणितो ववहारो धीरपुरुसेहिं।। ३.स्था. वृ.प.३०२-यदगीनार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थ-निवेदना यातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं साज्ञा। ४. वही, प. ३०२-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्यापेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृतातामवधाय यदन्यस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा धारणा। वैयावृत्त्यकरादेवा गच्छोपग्रहकारिणो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चितपदानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति। ५. व्य. भा. उ. १० गा. ६७५ उद्धारणा विधारणा संधारणा संपधारणा चेव । नाऊण धीरपुरिसा धारणववहारं तं बिंति॥ ६. वही, गा.६७६-६७८ पाबल्लेण उवेच्च व उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। विविहेहिं पगारेहिं धारेयव्वं वि धारेउ। सं एगी भावस्सी छियकरणा ताणि एक्कभावेण। धारेयस्थपयाणि उ तम्हा संधारणा होइ॥ जम्हा संपहारेउं ववहारं पउंजति। तम्हा कारणा तेण नायव्वा संपहारणा|| ७. वही १०, गा.६८०-६८६ पवयण जसंसि पुरिसे अणुग्णह विसारए नवस्सिंमि। सुस्सुयबहुस्सुयंमि य विवक्कपरियागसुद्धम्मि।। एएसु धीरपुरिसा पुरिसजाएसु किंचि खलिए। रहिावि धारयंता जहारिहं देंति पच्छित्।। रहिए नाम असन्ने आइल्लम्मि ववहारतियगंमि। ताहेवि धारइत्ता बीमसेऊण जं मणियं ।। पुरिसस्स अझ्यारं वियारइत्ताण जम्स जे जोग। तं देति उ पच्छितं जेणं देती उतं सुणए।। जो धारितो सुतत्थो अणुओगविहीए धीरपुरिसेहि। आलीणपत्नीणेहिं जयणाजुत्तेहिं दन्तेहि॥ अल्लीणो णाणादिसु पदे पदे लीआ उ होति पलीणा। कोहादी वा पलयं जेसि गया ते पलीणा उ॥ जयणाजुनो पयत्तवा दंतो जो उवरतो उ पावेहि। अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च ॥ ८. वही, १०, गा. ६८७-६८९ अहवा जेणण्णझ्या दिट्टा सोही परस्स कीरंति। तारिसयं चेव पुनो उपण्णं कारणं तस्स।। सो तंमि चेव दव्वे खेने काले य कारिणे पुरिसो। तारिसयं अकरेंतो न उ सो आराहतो होइ।। सो तंपि चेव दव्वे खेने काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं चिय भूया, कुव्वं आराहगो होई।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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