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________________ श.८ : उ. ८ : सू. ३०१ ११८ भगवई कर सकता है। उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध ५. जीत व्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर आचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया। दूसरे समय में चढ़ाकर सारे नगर में घुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है. उसे जीत हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं ये सब सावध जीत व्यवहार के उदाहरण व्यवहार कहते हैं। किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवहरण करना निरवद्य जीत प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुआ और वह बहुतों द्वारा अनेक बार, अनुवर्तित व्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीत व्यवहार का भी आलम्बन हुआ। उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है। शिष्य ने यह लिया जाता है। प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपूर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहृदोषी है, सर्वथा निर्दय है श्रुत, आज्ञा और धारणा-ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावध जीत व्यवहार क्या यह सही है? उचित होता है। आचार्य ने कहा-'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, जो श्रमण वैराग्यवान, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरू है उसके अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी दशपूर्वी और नौपूर्वी-ये सब आगम- व्यवहारी कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीत व्यवहार उचित होता है। होते हैं। कल्प और व्यवहार सूत्रधर. श्रुतव्यवहारी होते हैं, जो छेदसूत्र जो जीत व्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा आचीर्ण के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि भी छेदसूत्रों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाले हैं, अतःकरने वाला नहीं होता। व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत जो जीत व्यवहार संवेगपरायण दांत मुनि द्वारा आचीर्ण है, भले नहीं है।' फिर वह एक ही मुनि द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला जीत व्यवहार दो प्रकार का होता है-सावध जीत व्यवहार और होता है। निरवद्य जीत व्यवहार। वस्तुतः निरवद्य से ही व्यवहरण हो सकता है, व्यवहार साधु-संघ की व्यवस्था का आधार -बिन्दु रहा है। इसके सावध से नहीं। परन्तु कहीं-कहीं सावध जीत व्यवहार का आश्रय माध्यम से संघ को निरंतर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न भी लिया जाता है। जैसे-कोई मनि ऐसा अपराध कर डालता है कि किया जा रहा है इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण जिससे समूचे श्रमण संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार स्थान है। १. व्या. भा. उ.१० गा. ६९०,६९१-- वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडगो वावि। धुम्मेहना न तरइ आराहेर बहं जो उ॥ तस्स उ उन्दरिऊण अत्यपयाई देति आयरियो। जेहिं उ करेइ कज्ज आहारेन्तो उ सो देसं॥ २. वही, ३०२--द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानानुवृत्या संहननधृत्यादिपरिहाणि मपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तकारणतः प्रायश्चित्त. व्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तितस्तज्जीतमिति। ३. वही, १०, गा. ६९६ ववहार चउक्कंपि य चोदसपुव्वंमि वोच्छिन्नं। ४. वही १०.गा, ७०१-०३ केवलमणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोदसदसनवपुवी आगमववहारिणो धीरा।। सुत्नेण ववहरते कप्पववहारं धारिणो धीरा। अत्थधरववहारते आणाए धारणा ए य॥ ववहारं चउक्कस्स चोहसपुविम्मि छेदो जं। भणियं तं ते मिच्छा जम्हा सुत्तं अन्थो य धरए य ।। ५. वही, गा.८१५ जं जीतं सावज्जन नेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज्ज तेण उ जीएण ववहारो।। ६. वही, गा. ७१६ वृत्ति छारहड्डिहड्डयालापोट्टेण य रिंगणं तु सावज्ज। दसविह पायच्छित् होइ असावजं जीयं त॥ यत प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं क्षारावगण्डनं हडी गुप्तिगृहप्रवेशनं खरमारोपणं पोट्टेण उदरेण रंगणं तु शब्दत्वात् खराब्दं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावधं जीतं, यत्तु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं तदसावा, जीतं अपवादतः कदाचित्सावद्यमपि जीतं दधान्। ७. वही,१० गा. ७१७ उसण्णबहूदोसे निद्रंधसे पवयणे य निरवेक्खो। एयारिसंमि पुरिसे दिज्जइ सावज नीयंपि।। ८. वही, गा. ७१८-- संविग्गे पियधम्मे अपमने य वज्जभीरुम्मि। कम्हिइयमाइ खलिए देयमसावज्जं जीयं तु॥ ९. वही, ७२० जंजीयमसोहिकरं पासत्थपमत्तसंजयाईण्णं। जइवि महाजणाइन्नं न तेन जीएण ववहारो॥ १०. वही, ७२१ जं जीयं सोहिकरं संवेगपरायणेन दंतेण। एगेण वि आइन्नं तेणं उ जीएण ववहारो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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