________________
भगवई
उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष व्यवहार का प्रवर्तन करता है।
१. आगम व्यवहार-इसके दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्षा' प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं
१. अवधि प्रत्यक्ष, २. मनःपर्यव प्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञान प्रत्यक्ष। परोक्ष के तीन प्रकार हैं१. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वधर, ३. नवपूर्वधर।
शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भलावे आगम-व्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं?
आचार्य ने कहा-जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से जान लेता है। जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी आलोचक के रागद्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है।
शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते अतः न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या
आचाय ने कहा-'वत्स! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है। वहां का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिए. समय-समय पर शंख बजाता है। शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं।
यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यक रूप से आलोचना नहीं की हैं, तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। आगमव्यवहारी के लक्षण
आचार्य के आठ प्रकार की संपदा होती है-आचार, श्रुत, १.व्य, भा, उ.१० गा. २०१
आगमतो ववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो।
पच्चक्खो य परोक्खो सो वि य दुविहो मुणेयव्यो। २. वही, २०३
ओहिमणपज्जवे य केवलनाणे य पच्चक्खे। ३. वही. गा. २०६
परोक्खं यवहारं आगमतो सुयधरा ववहरति।
चोदसदसपुव्वधरा नवपुब्वियगंधहत्थी य॥ ४. वहीं, २१० वृनि कथं केन प्रकारेण साक्षात श्रुतेन व्यवहरन्तः आगम
व्यवहारिणः। ५. वही, गा, २११
जह केवली वि जाणइ दव्वं च खेनं च कालभावं च।
तह चउलक्खणमेवं सुयनाणीमेव जाणानि ।। ६. वही, गा. २१३ वृत्ति 9. वही, गा. २१६ वृनि-जिनास्तीर्थकृतः परोक्षे आगमे उपसंहारं नालीधमकेन कुर्वन, श्यमत्र भावनाः नाडिकायां गलन्त्यामुदकगलनपरिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलिते यामो दिवसस्य रात्रेर्वा गत इनि ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय
श. ८ : उ. ८ : सू. ३०१ शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं।
इस प्रकार इसके ३२ प्रकार होते हैं। (देखें भगवई ८/१५ का टिप्पण)
चार विनय प्रतिपत्तियां हैं। १. आचारविनय-आचार विषयक विनय सिखाना। २. श्रुतविनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना।
३. विक्षेपणाविनय-जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना, जो स्थित हैं उन्हें प्रव्रजित करना, जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुनः धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिए हित संपादन करना।
४. दोषनिर्धातविनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षाविनयन के लिए प्रयत्न करना।
जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनार्ह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्जनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रतषट्क और कायषट्क को जानने वाला तथा जो जातिसम्पन्न आदि दस गुणों से युक्त है-वह आगमव्यहारी होता है।"
शिष्य ने पूछा-भंते ! वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थ शुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थशुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है, इसलिए वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने वालों के अभाव में चारित्र की विशुन्द्रि भी नहीं रहती। दूसरी बात है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित्त देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चिन देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक।
___ अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथसाथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है।
शंख धमति। तत्र यथा सोऽन्यो जनः शंखस्य शब्देन श्रुतेन कालं वा यामलक्षणं जानानि यथापरोक्षागमगामिनोऽपि शोधिमालोचनां श्रुत्वा तस्य यथावस्थितं भावं जानाति। ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददाति। ८. वही, गा. ३०३
आयारे सुय विणए विक्खेवण चेव होई बोधब्बे।
दोसरस निग्याए विणए चरहेस पडिवत्ती।। ९. वही, गा. ३०५-३२७॥ १०. वही, गा. ३२८-३३४। ११. वही, गा.३३५-३३८
एवं भणिते भणती ते वोच्छिन्ना उपसंपय इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसु नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स। देतावि न दीसंती न वि करेता उपसंपया केई। तित्थं च नाणदसणनिज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ।। चोदसपुव्वधराणं वोच्छेदो केवलीण वुच्छेए। केसि वी आदेसो पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं ।। जं जत्तिएण सुज्झइ पावे तस्स नहा देंति पच्छित्तं । जिण, चोहसपुव्वधरा विवरीया जहिच्छाए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org