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श. ८ : उ.८ : सू. ३०१
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भगवई
से जो विकास हो सकता है, वह कर्तव्य-विमुखता से कभी नहीं हो सकता। आदरणीय के प्रति आदर भाव से जो विकास हो सकता है, वह अनादर भाव से कभी नहीं हो सकता। प्रस्तुत आलापक में
मूल्यांकन का जो दृष्टिकोण दिया है, वह जीवन की सफलता की महार्घ्य कुंजी है। द्रष्टव्य ठाणं ३/४८८-९३ का टिप्पण।
जीतः।
पंचववहार-पदं पंचववहार-पदम्
पांच व्यवहार पद ३०१. कतिविहे णं भंते ! ववहारे पण्णत्ते? कतिविधः भदन्त ! व्यवहारः प्रज्ञप्तः ? ३०१. 'भंते! व्यवहार कितने प्रकार का
प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं गौतम! पञ्चविधः व्यवहारः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम! व्यवहार पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जहा-आगमे, सुतं, आणा, धारणा, यथा-आगमः, श्रुतम्, आज्ञा, धारणा, जैसे-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीए।
जीत। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं । यथा सः तत्र आगमः स्यात् आगमेन । जहां आगम हो वहां आगम से व्यवहार की ववहारं पट्टवेज्जा । व्यवहारं प्रस्थापयेत्।
प्रस्थापना करें। णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र आगम: स्यात्, यथा सः तत्र जहां आगम न हो, श्रुत हो वहां श्रुत, सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। श्रुतः स्यात्, श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत।। व्यवहार की प्रस्थापना करे। णो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र श्रुतः स्यात् यथा सः तत्र जहां श्रुत न हो, आज्ञा हो वहां आज्ञा से आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। आज्ञा स्यात् आज्ञया व्यवहारं प्रस्थापयेत् । व्यवहार की प्रस्थापना करे। णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र आज्ञा स्यात्, यथा सः तत्र जहां आज्ञा न हो, धारणा हो, वहां धारणा धारणा सिया, धारणाए ववहारं धारणा स्यात्, धारणया व्यवहार से व्यवहार की प्रस्थापना करे। पट्ठवेज्जा ।
प्रस्थापयेत्। णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से नो च सः तत्र धारणा स्यात् यथा सः तत्र जहां धारणा न हो, जीत हो, वहां जीत से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं जीतः स्यात, जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत्। व्यवहार की प्रस्थापना करे। पट्ठवेज्जा । इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा, तं इत्येतैः पञ्चभिः व्यवहारं प्रस्थापयेत् इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करेजहा-आगमेणं, सुएणं आणाए धारणाए, तद्यथा-आगमेन, श्रुतेन, आशया, आगम से, श्रुत से, आज्ञा से, धारणा से जीएण। धारणया, जीतेन।
और जीत से। जहा-जहा से आगमे सुए आणा धारणा यथा-यथा सः आगमः श्रुतः आज्ञा धारणा जिस समय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा जीए तहा-तहा ववहारं पट्ठवेज्जा। जीतः तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेत्। और जीत में से जो प्रधान हो, उसी से
व्यवहार की प्रस्थापना करे। से किमाहु भंते! आगमबलिया समणा अथ किमाहु भदन्त ! आगमबलिकाः भंते! आगमबलिक श्रमण निग्रंथों ने इस निगंथा? श्रमणाः निर्गन्थाः?
विषय में क्या कहा है? इच्चेतं पंचविहं ववहारं जदा-जदा जहिं- इत्येतं पञ्चविधं व्यवहारं यदा-यदा यत्र-यत्र इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस जहिं तदा तदा तहिं-तहिं अणिस्सि- तदा तदा तत्र-तत्र अनिश्रितोपश्रितं सम्यक विषय में जो व्यवहार हो. तब-तब वहां
ओवस्सितं सम्मं ववहर-माणे समणे व्यवहारमाणः श्रमणः निर्ग्रन्थः आज्ञायाः वहां अनिश्रितोपाश्रित मध्यस्थभाव से निग्गंथे आणाए आराहए भवइ॥ आराधकः भवति।
सम्यग व्यवहार करता हुआ श्रमण निग्रंथ आज्ञा का आराधक होता है।
भाष्य
१. सूत्र ३०१
पंचविध व्यवहार का पाठ व्यवहार सूत्र, स्थानांग और भगवती-इन तीनों आगमों में मिलता है। व्यवहार छेद सूत्र है, इसलिए प्रस्तुत पाठ मूलतः उसी से संबद्ध है। स्थानांग में वह संकलित और भगवती में संकलन काल में निक्षिप्त हुआ प्रतीत होता है। पांच व्यवहार
भगवान महावीर तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने संघ- व्यवस्था की दृष्टि से एक आचार संहिता का निर्माण किया। उसमें मुनि के कर्तव्य
और अकर्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश है। उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है। जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेद दृष्टि से 'व्यवहार' कहलाते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के आधार पर प्राथमिकता बतलाई गई है।
व्यवहार संचालन में पहला स्थान आगमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुतपुरुष करता है। उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और
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