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________________ भगवई श.८ : उ.८ : सू. ३०० गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-नाणपडिणीए, दंसणपडि-णीए, चरित्तपडिणीए॥ गौतम! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-ज्ञानप्रत्यनीकः, दर्शनप्रत्यनीकः, चरित्रप्रत्यनीकः। गौतम! भाव की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञान प्रत्यनीक, दर्शन प्रत्यनीक, चारित्र प्रत्यनीक भाष्य १.सूत्र २९५-३०० से संघ बृहत् होता है। एक आचार्य का शिष्य-समूह कुल. तीन कुलों प्रत्यनीक का अर्थ है प्रतिकूल। प्रस्तुत आलापक में प्रत्यनीक का समूह गण और सब गणों का समूह संघ कहलाता है। लौकिक व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टियों से वर्गीकरण किए गए हैं। पक्ष में भी कुल, गण और संघ की व्यवस्था घटित होती है। इनकी प्रथम वर्गीकरण गुरु की अपेक्षा से है। आचार्य, उपाध्याय और निंदा करना, इन्हें विघटित करने का प्रयत्न करना समूह के प्रतिकूल स्थविर-ये तीन गुरु वर्ग के हैं। आचार्य अर्थ के व्याख्याता हैं। व्यवहार है। उपाध्याय सूत्रदाता हैं। स्थविर के तीन प्रकार है चौथा वर्गीकरण अनुकंपनीय व्यक्तियों की अपेक्षा से है। १. जाति स्थविर-साठ वर्ष की अवस्था वाला। तपस्वी, ग्लान-रोग, वार्धक्य आदि से असमर्थ और शैक्ष-नव २. श्रुत स्थविर-समवाय आदि अंगों को धारण करने वाला।। दीक्षित-ये तीन अनुकंपनीय होते हैं। इनकी सेवा न करना और न ३. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला। करवाना प्रत्यनीक व्यवहार है। गुरु के प्रति किए जाने वाले प्रत्यनीक व्यवहार का निरूपण पांचवां वर्गीकरण शास्त्र-ग्रंथों की अपेक्षा से है। संक्षिप्त और बृहत्कल्प भाष्य में मिलता है व्याख्येय ग्रंथ का नाम है-सूत्र। विस्तृत और व्याख्या ग्रंथ का नाम १. गुरु की जाति-मातृपक्ष विशुद्ध नहीं है। है-अर्थ। पाठ और अर्थ मिश्रित रचना का नाम है-तदुभय ग्रंथ। सूत्र २. गुरु का कुल-पितृपक्ष विशुद्ध नहीं है। पाठ का यथार्थ उच्चारण न करने वाला सूत्र के प्रतिकूल व्यवहार करता ३. व्यवहारकुशल नहीं है। है। सूत्र की तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने वाला अर्थ के प्रतिकूल ४.सेवा नहीं करता। व्यवहार करता है। सूत्र और अर्थ दोनों के प्रति होने वाला प्रतिकूल ५. अहित करता है। व्यवहार तदुभय प्रत्यनीकता है। ६. छिद्र देखता रहता है। अभयदेव सूरि ने सूत्र की प्रत्यनीकता को समझाने के लिए ७. सबके सामने दोष बतलाता है। बृहत्कल्प भाष्य की एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य है-कुछ ८. प्रतिकूल व्यवहार करता है। दुर्विदग्ध व्यक्ति कहते हैं-बार-बार षट्काय का निरूपण, बार-बार जो व्यक्ति अवर्णवाद आदि के रूप में गुरु के प्रतिकूल व्यवहार । व्रतों तथा प्रमाद और अप्रमाद का निरूपण शास्त्र की मूल्यवत्ता को करता है, वह गुरु की अपेक्षा प्रत्यनीक है। कम करता है। उसका प्रतिपाद्य मोक्षाधिकार है फिर ज्योतिषशास्त्र दूसरा वर्गीकरण जीवन-पर्याय की अपेक्षा से है। जो इन्द्रियों और योनिप्राभूत जैसे ग्रंथों की क्या अपेक्षा है ? इस प्रकार का चिन्तन को अज्ञानपूर्ण तप से पीड़ित करता है, वह इहलोक-मनुष्यत्व लक्षण श्रुत की प्रत्यनीकता है। पर्याय का प्रत्यनीक होता है। जो केवल इन्द्रिय-विषयों के भोग में छठा वर्गीकरण भाव की अपेक्षा से है। ज्ञान को दुःख का मूल तत्पर रहता है, वह परलोक-जन्मान्तर का प्रत्यनीक होता है। और अज्ञान को सुख का मूल मानना ज्ञान की प्रत्यनीकता है। दर्शन जो चोरी आदि गलत उपायों का सहारा लेता है और इन्द्रिय और चारित्र की व्यर्थता का प्रतिपादन करना क्रमशः दर्शन और चारित्र विषयों के भोग में तत्पर रहता है, वह इहलोक और परलोक दोनों का के प्रति दोषपूर्ण व्यवहार है।' प्रत्यनीक होता है। उक्त निरूपण से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म व्यवहार विज्ञान की दृष्टि से यह आलापक अतिशय उपयोगी इंन्द्रिय-संताप और इन्द्रिय आसक्ति दोनों के पक्ष में नहीं है। है। इसका तात्पर्यार्थ है-विधायक भाव से जो विकास हो सकता है, तीसरा वर्गीकरण समूह की अपेक्षा से है। कुल से गण और गण वह निषेधात्मक भाव से कभी नहीं हो सकता। कर्तव्य की अनुपालना १. (क) भ. वृ.८/२०५। ५.बृ. क. भा. गा. १३०३(ख) ठाणं १०/१३६। काया वया य तेच्चिय, ने चेव पमाय अप्पमाया य। २. (क) बृ.क. भा. गा.१३०५ मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहि किं च पुणो।। जच्चाईहिं अवण्णं भासइ वट्टइ न यापि उववाए। इह केचिद् दुर्विदग्धाः प्रवचनाशातनापानकमगणयन्त इन्थं श्रुतस्यावणं बवत, अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूलो॥ यथा-षड़जीवनिकाययामपि षट्कायाः प्ररुप्यन्ते, शास्त्रपरिज्ञायामपि न एव, (ख) भ. वृ. ८/२०५-२०६। अन्येष्वप्यध्ययनेषु बहुशस्त एवोपवय॑ते, एवं वनान्यपि पुनः पुनस्तान्ग्रेव ३. वही, ८/२०६-गतिं मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य तत्रेहल्लोकस्य प्रत्यक्षस्य प्रतिपाद्यन्ते; तथा न एव प्रमादाप्रमादाः पुनः पुनर्वर्ण्यन्त, यथा-उत्तगध्ययनेषु मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीकः, इन्द्रियार्थ प्रतिकूलकारित्वात् आचारांगेवा, एवं च पुनरुक्तदोषः किञ्च यदि केवलस्यैव मोक्षस्य साधनार्थमयं पञ्चाग्नितपस्विवद् इहलोक-प्रत्यनीकः परत्नोको-जन्मान्तरं प्रत्यनीकः प्रयासस्तहि मोक्षाधिकारिणां साधूनां सूर्यप्रज्ञप्त्यादिना ज्योतिषशास्त्रण इन्द्रियार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चीर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः। योनिप्राभृतेन वा किं पुनः कार्यम? न किञ्चिदित्यर्थः । ४. वहीं.८ २०६। ६. भ. वृ. ८/३००। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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