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________________ भगवई श.९ : उ. ३२ : सू. १२१,१२२ २६३ वेमाणिया उववज्जंति, सतो नेरइया असतः नैरयिकाः उद्धर्तन्ते यावत् सतः उव्वटुंति, नो असतो नेरइया उव्वदृति वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः जाव सतो वेमाणिया चयंति. नो असतो च्यवन्ते। वेमाणिया चयंति॥ उद्वर्तन करते हैं, असत् उद्वर्तन नहीं करते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते। भाष्य १.सूत्र-१२१ पापित्यीय गांगेय ने उत्पत्ति, उद्वर्तना, और प्रवेशन के पश्चात् सत् और असत् का प्रश्न उपस्थित किया-नैरयिक आदि सभी जीव उत्पन्न होते हैं। वे उत्पत्ति से पूर्व सत् हैं अथवा असत्। उत्तर में महावीर ने कहा-गांगेय! सत् ही उत्पन्न होता है, असत् उत्पन्न नहीं होता। जो उत्पन्न होता है, वह द्रव्यार्थ नय की दृष्टि से सत् होता है । जो सर्वथा असत् है, वह कभी भी उत्पन्न नहीं होता। सभी जीव जीवद्रव्य की अपेक्षा से सत् हैं। मनुष्य आदि पर्याय की दृष्टि से असत् हैं। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सत् ही उत्पन्न होता है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से असत् ही उत्पन्न होता है। भगवान का उत्तर द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से है। इसीलिए भगवान ने कहा-गांगेय! सत् उत्पन्न होता है, असत् उत्पन्न नहीं होता। गांगेय के प्रतिप्रश्न के उत्तर में भगवान ने अर्हत् पार्श्व के सिद्धांत को उद्धृत किया। गांगेय उससे बहुत प्रभावित हुआ। भगवान द्वारा पार्श्व के सिद्धांत का उल्लेख भगवती ५/२५४-२५६ में भी है। द्रष्टव्य भगवती ५/२५४-२५६ का भाष्य। १२२. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति? तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते- सतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते नो असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, यावत् सतः वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते। से नूणं भे गंगेया! पासेणं अरहया स नूनं भो! गाङ्गेय! पाइँन अर्हता पुरुषापुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए दानीयेन शाश्वतः लोकः ब्रूतः अनादिकः अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवुडे हेट्ठा अनवदनः परीतः परिवृतः अधः विच्छिन्नः, विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि मध्ये संक्षिप्तः, उपरिविशालः, अधः पर्यङ्कविसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे संस्थितः, मध्ये वरवज्रवैग्रहिकः, उपरि वरवइरविग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकार- उर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः। तस्मिन् च संठिए। तसिं च णं सासयंसि लोगंसि शाश्वते लोके अनादिके अनवदग्रे परीते अणादियंसि अणवदग्गंसि परित्तंसि परिवते अधः विच्छिन्ने, मध्ये संक्षिप्ते, परिखुडंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि, मज्झे । उपरिविशाले अधः पर्यङ्कसंस्थिते, मध्ये संखि-तंसि, उप्पि विसालंसि, अहे वरवज्रवैग्रहिके, उपरि उर्ध्वमृदङ्गाकारपलियंकसंठियंसि, मज्झे वरखइर- संस्थिते अनन्ताः जीवधनाः उत्पद्य-उत्पद्य विग्गहियंसि, उप्पि उद्धमुइंगा-कार- निलीयन्ति, परीताः जीवधनाः उत्पद्यसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता- उत्पद्य निलीयन्ति। उप्पज्जित्ता निली-यंति, परित्ता सः भूतः उत्पन्नः विगतः परिणतः. अजीवैः जीवघणा उप्पज्जित्ता-उप्पग्जित्ता लोक्यते प्रलोक्यते, यः लोक्यते सः लोकः। निलीयंति। तत् तेनार्थेन गाङ्गेय! एवम् उच्यते यावत् से भूए उप्पण्णे विगए परिणए, अजीवेहिं सतः वैमानिकाः च्यवन्ते नो असतः लोक्कइ पलोक्कइ, जे लोक्कइ से वैमानिकाः च्यवन्ते। लोए। से तेणद्वेणं गंगेया! एवं बुच्चइजाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति॥ १२२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते? हे गांगेय! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, वह अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्न-भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त ऊपर में विशाल, निम्नभाग में पर्यंक, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनंत जीव-धन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं, परीत जीव-घन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं। वह लोक सद्भूत. उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव-पुद्गल आदि के विविध परिणमनों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक है। गांगेय! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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