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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. ४६-४८
होता है। उसके अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण. कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है।
भाष्य
१.सूत्र-४६
प्रस्तुत सूत्र में क्षपकश्रेणी के आरोहण की प्रक्रिया बतलाई गई है। क्षपकश्रेणी में आरोहण करने वाला सर्वप्रथम अनंत काल से चले आ रहे भवग्रहण का विसंयोजन करता है
१. नैरयिक भवग्रहण का विसंयोजन। २. तिर्यक्योनिक भवग्रहण का विसंयोजन। ३. मनुष्य भवग्रहण का विसंयोजन। ४. देव भवग्रहण का विसंयोजन।
तत्पश्चात् नामकर्म की चार उत्तर प्रकृतियों का विसंयोजन करता है
१. नैरयिक गति नामकर्म का विसंयोजन। २. तिर्यक्योनिक गति नामकर्म का विसंयोजन। ३. मनुष्य गति नामकर्म का विसंयोजन। ४. देव गति नामकर्म का विसंयोजन।
तत्पश्चात् गति चतुष्टय के हेतुभूत अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् संज्वलन कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात्
पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक
और मोहनीय कर्म को क्षीण कर अपूर्वकरण में प्रविष्ट होता है, केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
- इस प्रक्रिया के पश्चात् दुबारा मोहनीय कर्म का कथन विशेष उद्देश्य से किया गया है। सूत्रकार यह बतलाना चाहते हैं-मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का क्षय होता है। जैसे-ताल वृक्ष की मस्तक स्थित सूई के विनिष्ट होने पर तालवृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर ज्ञानावरणीय आदि तीन कर्म क्षीण हो जाते हैं।' शब्द विमर्श
तालमत्थाकडं-इस वाक्य में तीन पद हैं-ताल, मस्तक और कृत। इसका तात्पर्य है मस्तक सूची के छिन्न होने पर तालवृक्ष नष्ट हो जाता है।
___ अपूर्वकरण-असदृश अध्यवसाय, ऐसा अध्यवसाय, जो पहले कभी नहीं आया। सामान्यतः ऐसे दो स्थान प्रसिद्ध हैं-प्रथम अपूर्वकरण सम्यक्त्व प्राप्ति के समय होता है। दूसरा अपूर्वकरण श्रेणी आरोहण के समय होता है।
तीसरा अपूर्वकरण केवल ज्ञान के पूर्व क्षण में होता है। इस अध्यवसाय में अनुप्रविष्ट जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है।
४७. से णं भंते! केवलिपण्णत्तं धम्म
आघवेज्ज वा? पण्णवेज्ज वा? परवेज्ज वा? नो तिणढे समढे, नत्थ एगनाएण वा, एगवागरणेण वा॥
स भदन्त! केवलिप्रज्ञप्तं धर्ममाख्याति वा? प्रज्ञापयति वा? प्ररूपयति वा? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः, नान्यत्र एकज्ञाताद वा, एकव्याकरणाद् वा।
४७. भंते! क्या वह अश्रुत्वा केवलज्ञानी केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान, प्रज्ञापना अथवा प्ररूपण करता है? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। केवल इतना अपवाद है-एक ज्ञात (दृष्टान्त) अथवा एक व्याकरण (एक प्रश्न का उत्तर) करता है।
स भदन्तः प्रव्राजयति वा? मुण्डयति वा?
४८. से णं भंते! पव्वावेज्ज वा? मुंडावेज्ज वा? णो तिणढे समटे, उवदेसं पुण करेज्जा॥
४८. भंते! क्या वह प्रव्रज्या देता है, मुण्ड
करता है? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह प्रव्रज्या और मुंडन के लिए उपदेश देता है।
गौतम! नो अयमर्थः समर्थः. उपदेशं पुनः करोति।
१. भ. वृ. १/४६-तालमस्तकमोहनीययोश्च क्रियासाधर्म्यमेव। यथा हि तालमस्तिष्कविनाशक्रियाऽवश्यंभावितालविनाश। एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाप्यवश्यंभाविविशेषकर्मविनाशेति, आह च
मस्तकसूचिविनाशे, तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तवतकर्मविनाशोऽपि, मोहनीयक्षये नित्यम॥
२. वही, १/४६ मस्तकं-मस्तकशूचीकृतं छिन्नं यस्यासी मस्तकं कृतः तालश्चासौ मस्तककृत्नश्च तालमस्तककृतः तालश्चासी छन्दसत्वाच्चैवं निर्देशः, नालमस्तककृत्त इव यत्ततालमस्तककृतम्।
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