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भगवई
श. ९ : उ. ३१ : सू. ४९-५१ ४९. से णं भंते! सिज्झति जाव सव्वदु-
क्खाणं अंतं करेति? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ।।
स भदन्त! सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति? हन्त सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
४९. भंते! क्या वह सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है? हां, वह सिद्ध होता है यावत सब दुःखों का अन्त करता है।
५०. से णं भंते! किं उर्ल्ड होज्जा? अहे होज्जा? तिरिय होज्जा?
स भदन्त किं ऊर्ध्वं भवति? अधः भवति? तिर्यग् भवति?
५०. भंते! क्या वह ऊर्ध्व देश में होता है? अधो देश में होता है? तिर्यक् देश में होता
गोयमा! उर्ल्ड वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा। उर्ल्ड होमाणे सद्दावइवियडावइ-गंधा-वइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्डपव्वएसुहोज्जा, साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा। अहे होमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होज्जा। तिरियं होमाणे पण्णरससु कम्म-भूमीसु होज्जा, साहरणं पडुच्च अड्ढाइज्जदीव-समुह-तदेक्क-देसभाए होज्जा॥
गौतम! ऊर्ध्वं वा भवति, अधः वा भवति तिर्यग् वा भवति। ऊर्ध्वं भवन् शब्दापातिविकटापाति-गन्धापाति-माल्यवतपर्यायेषु वृत्तवैताढयपर्वतेषु भवति, संहरणं-प्रतीत्य सौमनसवने वा पण्डकवने वा भवति। अधः भवन गर्ने वा, दर्यां वा भवति, संहरणप्रतीत्य पाताले वा भवने वा भवति। तिर्यग भवन् पञ्चदशसु कर्मभूमीषु भवति, संहरणं प्रतीत्य अर्धतृतीयद्वीप-समुद्र-तदेकदेशभागे। भवति।
गौतम! वह ऊर्ध्व देश में भी होता है, अधो देश में भी होता है, तिर्यक देश में भी होता है। ऊर्ध्व देश में होता है-शब्दापाति, विकटापाति, गंधापाति, मालवंत पर्वतों में
और वृत्त वैताढ्य पर्वतों में होता है। संहरण (अपहरण) की अपेक्षा सोमनस वन में भी होता है, पंडकवन में भी होता है। अधोदेश में होता है-गड्ढे में भी होता है, कंदरा में भी होता है। संहरण की अपेक्षा पाताल में भी होता है, भवन में भी होता है। तिर्यक लोक में होता है-पंद्रह कर्मभूमि में होता है। संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्र के एक देश भाग में होता है।
५१. ते णं भंते! एगसमए णं केवतिया ते भदन्त! एक समये कियन्तः भवन्ति? ५१. 'भंते! अश्रुत्वा केवलज्ञानी एक समय होज्जा?
में कितने होते हैं? गोयमा! जहण्णणं एक्को वा दो वा गौतम! जघन्येन एकः वा. द्वौ वा, त्रयः वा. गौतम! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस। से तेणद्वेणं उत्कर्षेण दश।
उत्कृष्टतः दस। गोयमा! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा गौतम! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- है-केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका उवासियाए वा अत्थे-गतिए केवलि- उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्त से सुने बिना कोई पुरुष केवली प्रज्ञप्स धर्म पण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, अत्थे- धर्मं लभते श्रवणाय, अस्त्येककः अश्रुत्वा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं गतिए असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- कर सकता यावत् केवली यावत् तत्पाक्षिक तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं नो की उपासिका से सुने बिना कोई पुरुष धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए जाव लभते श्रवणाय यावत् अस्त्येककः केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, केवलज्ञानम् उत्पादयति, अस्त्येककः नहीं कर सकता। अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। केवलज्ञानं नो उत्पादयति।
भाष्य १. सूत्र ५१
उत्तराध्ययन सूत्र में बतलाया गया है-अन्य लिंगी के वेश में एक समय में उत्कृष्टतः दस सिद्ध हो सकते हैं।' सोच्चा उवलद्धि-पदं श्रुत्वा उपलब्धि-पदम्
श्रुत्वा उपलब्धि-पद ५२. सोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा, श्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा, केवलि- ५२. भंते! कोई पुरुष केवली. केवली के
केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए श्रावकस्य वा, केवलिश्राविकायाः वा, श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के १. उत्तर.३६.५१-५२
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