________________
श. ९ : उ. ३१ : सू. ४४-४६
२१६
भगवई
भाष्य १.सूत्र ४३
चारित्र अवस्था में केवल संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का कषाय के चार भेद है-अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, उदय होता है।' प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन।
४४. 'भंते! उसमें कितने अध्यवसान प्रज्ञप्त
४४. तस्स णं भंते! केवइया अज्झ-वस- तस्य भदन्त! कियन्ति अध्यवसानानि णा पण्णत्ता?
प्रज्ञाप्लानि? गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा गौतम! असंख्येयानि अध्यवसानानि पण्णत्ता।
प्रज्ञसानि।
गौतम! असंख्येय अध्यवसान प्रज्ञप्त हैं।
४५. ते णं भंते! किं पसत्था? अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था, नो अप्पसत्था॥
तानि भदन्त! किं प्रशस्तानि? ४५. भंते! वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्तानि?
अप्रशस्त? गौतम! प्रशस्तानि, नो अप्रशस्तानि। गौतम! प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं
होते।
भाष्य
१. सूत्र-४४-४५
द्रष्टव्य भगवती ९/९.३२ का भाष्य।
४६.से णं भंते!तेहिं पसत्थेहिं अज्झ-वस- स भदन्त! तैः प्रशस्तैः अध्यवसानैः ४६. 'भंते! वह अश्रुत्वा अवधिज्ञानी उन
णेहिं वट्टमाणेहिं अणंतेहिं वर्तमानैः अनन्तेभ्यः नैरयिकभवग्रहणेभ्यः वर्तमान प्रशस्त अध्यवसानों के द्वारा नेरइयभवग्गहणेहितो अप्पाणं आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः अनन्त नैरयिक जन्मों (भव-ग्रहण) से विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्ख- तिर्यग्योनिक-भवग्रहणेभ्यः आत्मानं अपने आपको विसंयुक्त कर लेता है। जोणियभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः मनुष्य- अनन्त तिर्यक्योनिक जन्मों से अपने विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्स- भवग्रहणेभ्यः आत्मानं विसंयोजयति, आपको विसंयुक्त कर लेता है, अनंत भवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अनन्तेभ्यः देवभवग्रहणेभ्यः आत्मानं मनुष्य जन्मों से अपने आपको विसंयुक्त अणतेहिं देवभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंयोजयति। या अपि च तस्य इमाः कर लेता है, अनंत देव जन्मों से अपने विसंजोएइ। जाओ वि य से इमाओ नैरयिक-तिर्यगयोनिक-मनुष्य-देवगति- आपको विसंयुक्त कर लेता है, जो नेरइय तिरिक्खजोणिय-मणुस्स- नाम्न्यः चतस्रः उत्तरप्रकृतयः, तासां च नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति नाम देवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपगडीओ, औपग्रहिकान अनन्तानुबंधिनः क्रोध-मान- की चार उत्तर प्रकृतियां हैं, उनके तासिं च णं ओवग्गहिए अणंताणुबंधी माया-लोभान् क्षपयति, क्षपयित्वा औपग्रहिक (आलंबनभूत) अनन्तानुकोह-माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता प्रत्याख्यानावरणान् क्रोध-मान-माया- बंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ को अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया लोभान् क्षपयति, क्षपयित्वा अप्रत्या- क्षीण करता है। उसे क्षीण कर लोभे खवेइ, खवेत्ता पच्च-क्खाणावरणे ख्यानावरणान् क्रोध-मान-माया-लोभान् अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया कोह-माण-माया-लोभे-खवेइ, खवेत्ता क्षपयति, क्षपयित्वा संज्वलन क्रोध-मान- और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, माया-लोभान् क्षपयति, क्षयित्वा पंचविधं कर प्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया खवेत्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं, नवविह ज्ञानावरणीयम्, नवविधं दर्शनावरणीयम्, और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण दरिसणावरणिज्जं, पंचविहं अंतराइयं, पञ्चविधम् आन्तरायिकं, तालमस्तककृतं कर संज्वलन-क्रोध, मान, माया और तालमत्थाकडं च णं मोहणिज्जं कट्ट च मोहनीयं कृत्वा कर्मरजोविकिरणकरम् लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर कम्मरय-विकिरणकरं अपुव्वकरणं अपूर्वकरणम् अनुप्रविष्टस्य अनन्तम् पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध अणु-पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वा. अनुत्तरं नियाघातं निरावरणं कृत्स्नं दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक और घाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे प्रतिपूर्णं केवल- वरज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते। मोहनीय को सिर से छिन्न किए हुए ताल केवलवरनाणदसणे समुपज्जति।।
वृक्ष की भांति क्षीण कर, कर्मरज के
विकिरणकारक अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट १. भ. ७.१/४३-तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात् संज्वलना एव क्रोधादया भवतीति।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org