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________________ श.८ : उ.१ : सू. १-३ भगवई उल्लेख नहीं किया है, उसकी पूर्ति प्रयोग के दो भेद बतलाकर की विवक्षित हैं' इसका उल्लेख किया है।' है-अजीव विषयक प्रायोगिक और जीवाजीव विषयक प्रायोगिक । उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में ही अजीव विषयक प्रायोगिक को समझाने के लिए जतुकाष्ठ का उदाहरण बिठायी जा सकती है। मिश्र परिणाम के उदाहरण है घट और स्तंभ। दिया है। घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का सिद्धसेन गणि ने भी इस उदाहरण का प्रयोग किया है। स्वभाव है इसलिए घट मिश्रपरिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिक जीवाजीव विषयक प्रायोगिक दो प्रकार के होते हैं सम्मत समवायि कारण से की जा सकती है। १. कर्मबंध-ज्ञानावरण आदि का बंध प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। २. नोकर्मबंध-औदारिक आदि शरीर का निर्माण। उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र परिणाम अभयदेव सूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है। स्वभाव प्रस्तुत किए हैं परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त-दोनों से निरपेक्ष होता है।' १. मुक्त जीव का शरीर सूत्रकार ने प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्यों का वर्णन विस्तार से २. औदारिकादि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन। किया है। इससे फलित होता है-जीव अपने प्रयत्न से शरीर की शरीर का निर्माण जीव ने किया है इसलिए वह जीव के प्रयोग रचना, इन्द्रिय की रचना, वर्ण का निष्पादन और संस्थान (आकार) से परिणत द्रव्य है। स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है इसलिए वह की संरचना करता है। मिश्र परिणत द्रव्य है। प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थवाद और स्वभाव परिणाम से औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न है। जीव के प्रयोग स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है इसलिए उसे से वे शरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद और स्वभाववाद-दोनों मान्य है। द्रष्टव्य स्वभाव दोनों का योग है। ८/३४५-३६५ का भाष्या उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया-प्रयोग परिणाम और मिश्र शट विमर्श परिणाम में क्या अंतर है? उन्होंने समाधान में कहा-प्रयोग परिणाम प्रयोग-जीव का प्रयत्न में भी स्वभाव परिणाम है किन्तु वह विवक्षित नहीं है। सिद्धसेन गणि मिश्र-प्रयत्न और स्वभाव दोनों का योग। ने भी 'मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव-दोनों प्रधान रूप से विस्रसा-स्वभाव। पयोगपरिणति-पदं प्रयोगपरिणति-पदम् प्रयोगपरिणति-पद २. पयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला प्रयोगपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः कति- २. भन्ते! प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने कतिविहा पण्णत्ता? विधाः प्रजप्ला? प्रकार के प्रज्ञाप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णता, तं जहा- गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेएगिदियपयोगपरिणया, बेइंदिय- एकेन्द्रिय-प्रयोगपरिणताः, द्वीन्द्रिय प्रयोग- एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत. द्वान्द्रियप्रयोगपयोगपरिणया, तेइंदियपयोग-परिणया, परिणताः, त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणताः, परिणत, त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणत, चउरिंदियपयोगपरिणया, पंचिंदिय- चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणताः, पञ्चेन्द्रिय- चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणत और पंचेन्द्रियपयोगपरिणया॥ प्रयोगपरिणताः। प्रयोगपरिणत। ३. एगिदियपयोगपरिणया णं भंते! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ३. भन्ते! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधाः प्रज्ञप्ताः? कितने प्रकार के प्रजप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पांच प्रकार के प्रज्ञप्त है, जैसेपुढविकाइयएगिदियपयोग-परिणया, पृथ्वी . कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः पृथ्वीकायिक एके न्द्रियप्रयोगपरिणत. आउकाइयएगिदिय-पयोगपरिणया, अप्कायिकैकेन्द्रियप्रयोग - परिणताः, तेज- अप्कायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत, तैजस१. न. रा. वा. ५.२४-स द्वधा अजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति। तत्रा- जीवप्रयोगेणैकेन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणाममापादितास्ते मिश्रपरिणताः ननु जीवविषयो जनुकाष्ठादि लक्षणः। प्रयोगपरिणामोप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः? सत्यं; किन्तु २.न, सू, भा. वृ. ५.२४ प्रायोगिकः औदारिकादिशरीर- जनुकाष्ठादिविषयः। प्रयोगपरिणतेषु विरसा सत्यपि न विवक्षिता। ३. न. रा. वा. ५.२४-जीवाजीवविषयः कर्म नोकर्मबंधः। कर्मबंधो ५. न. सृ. भा. वृ. ५/२४-अत्र चोभयमपि प्राधान्यन विवक्षितम्। ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः। नोकर्मबंधः औदारिकादिविषयः। ६. वही, ५.२४-प्रयोगनिरपेक्षो विससा बंधः। ४. भ. वृ. ८.१-मिश्रकपरिणताः प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः। ७. भ. ८/२-३९ प्रयोगपरिणाममन्यजन्ता विमसया स्वभावान्तरमापादिताः मुक्तकडे- ८.न. रा. वा.-५२४-वियसा विधिविपर्यय निपानः पोमषेय-परिणामापेक्षा वरादित्याः। अथवादारिकादिवर्गणारूपा विखसया निष्पादिताः संतः विधिः, तद्विपर्यय विस्रसाशब्दो निपातो द्रष्टव्यः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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