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मूल
संगहणी गाथा
१. पोग्गल २ आसीविस ३ रुक्ख ४. किरिय५. आजीव ६,७. फासुकमदत्ते । ८. पडिणीय ९. बंध १०. आराहणा य अमि सते॥१॥
दस
अट्टमं सयं : आठवां शतक
पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक
संस्कृत छाया
संग्रहणी गाथा पुद्गलाशीविषरूक्ष- क्रिया
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आजीवप्रासुकादत्तानि ।
प्रत्यनीकबन्धाराधनाश्च दशाष्टमे शते ॥ १ ॥
पोग्गलपरिणति-पदं
पुद्गलपरिणति-पदम्
१. रायगिहे जाव एवं वदासी - कतिविहा राजगृहे यावत् एवमवादीत् कतिविधाः णं भंते! पोग्गला पण्णत्ता?
गोयमा! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा - पयोगपरिणया, मीसा-परिणया, वीससापरिणया ||
भदन्त! पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! त्रिविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्रयोगपरिणताः, मिश्रपरिणताः, विस्रसापरिणताः ।
१. त. भा. वृ. ५/१७
'निर्वर्त्तको निमित्तं परिणामी च त्रिधेष्यते हेतुः । कुम्भस्य कुम्भकारो, कर्ता मृच्चेति समसंख्यकम् ॥ २.भ. वृ. ८/१ - जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः ।
१. सूत्र १
प्रस्तुत आलापक में कार्य-कारणवाद के सापेक्ष दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है। सिद्धसेन गणि ने एक गाथा उद्धृत कर परिणामी (उपादान), निमित्त और निर्वर्तक-इन तीन कारणों का उल्लेख किया है।' वैशेषिक दर्शन में समवायि, असमवायि और निमित्त ये तीन कारण माने गए हैं। सूत्रकार का प्रतिपाद्य यह है-विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है। प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्र परिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धांत सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है।
भाष्य
उमास्वाति ने पुल के कार्यों का वर्गीकरण किया है। उनमें एक कार्य है बंध। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अनेक पुद्गल स्कंधों का निर्माण होता है।
हिन्दी व्याख्या
संग्रहणी गाथा
आठवें शतक के दस उद्देशक हैं- १. पुद्गल
२. आशीविष ३ वृक्ष ४. क्रिया ५. आजीवक ६. प्रासुक 0. अदत्त ८. प्रत्यनीक ९. बन्ध १० आराधना ।
पुद्गलपरिणति-पद
१. 'राजगृह नगर में भगवान् का समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भन्ते! पुद्गल कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। गौतम! पुद्गल तीन प्रकार के प्रजप्त हैं, जैसे- प्रयोगपरिणत. मिश्रपरिणत. विस्रसा परिणत ।
उस निर्माण या पुद्गल स्कंध की संरचना के तीन हेतु हैं१. प्रयोग
२. प्रयोग और स्वभाव का मिश्रण
३. स्वभाव ।
शरीर की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है। वह प्रयोग परिणत द्रव्य है । '
सिद्धसेन गणि ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है।" अकलंक ने प्रयोग का अर्थ पुरुष का शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है। *
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मिश्र परिणत - जीव के प्रयोग और स्वभाव- इन दोनों के योग से जो परिणमन होता है, वह मिश्र परिणत द्रव्य है। सिद्धसेन गणि ने मिश्र का अर्थ किया है जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति, जैसे- स्तंभ और घट |
अकलंक ने बंध के दो ही भेद बतलाए हैं। उन्होंने मिश्र का स्वतंत्र
३. त. सू. भा. सू. ५ / २४ प्रयोगो जीवव्यापारस्तेन घटितो बंधः प्रायोगिकः । ४. त. रा. वा. ५/२४-प्रयोगः पुरुषकायवाङ्मनः संयोगलक्षणः ।
५. त. सू भा. वृ. ५/२४-प्रयोगविस्रसाभ्यां जीवप्रयोगसहचरिता चेतनद्रव्यपरिणतिलक्षणः स्तम्भकुम्भादिर्मिश्रः ।
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